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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

इसलिए जहाँ-कहीं भी अभिभावकों अथवा शिक्षकोंका विरोध हो वहाँ राष्ट्रीयशाला बन्द ही कर देनी चाहिए। जहाँ अभिभावकोंमें राष्ट्रीय भावना हो और वे अपनी इस भावनाका प्रमाण उचित रूपमें राष्ट्रीय शालाओंके संचालनके लिए चन्दा देकर सिद्ध करते हों और जहाँ शिक्षक-वर्ग राष्ट्रीय भावनासे ओतप्रोत होकर जी-तोड़ प्रयत्न करता हो, वहाँ मैं समझ सकता हूँ कि विद्यार्थियोंके शिथिल होनेसे भी कोई बड़ा नुकसान नहीं हो सकता। ऐसी अवस्थामें हम शाला चलाते रह सकते हैं और आशा कर सकते हैं कि हम किसी-न-किसी दिन विद्यार्थियोंपर ठीक असर डाल सकेंगे। किन्तु यह लेख लिखते हुए मेरी नजरमें ऐसा एक भी स्कूल नहीं है।

मेरी समझमें अन्तिम वाक्य स्पष्ट है और अर्थ-भ्रमकी कोई गुंजाइश नहीं छोड़ता। "ऐसा एक भी स्कूल नहीं है" से अभिप्राय ऐसी ही शालाओंसे है जिनमें अभिभावक और शिक्षक श्रद्धालु और विद्यार्थी अश्रद्धालु हों। इस क्षण भी मुझे ऐसी किसी शालाका स्मरण नहीं आता। किन्तु यदि ऐसी कोई राष्ट्रीय शाला हो जहाँ शिक्षकोंके प्रयत्न और अभिभावकोंके धन देनेके रूपमें सहमतिके बावजूद विद्यार्थीगण आदर्शोंका पालन नहीं करते तो उक्त अनुच्छेदके अनुसार मैं फिर भी यही सलाह दूंगा कि वह शाला बन्द न की जाये बल्कि चालू रखी जाये और विद्यार्थियोंको सुधारनेका प्रयत्न किया जाये। मैंने इसी विचारको उक्त लेखके अन्तिम दो अनुच्छेदोंमें भी स्पष्ट किया है। यहाँ उनका अनुवाद देना अप्रासंगिक न होगा:

मेरा अनुभव तो यही है कि जहाँ राष्ट्रीय तत्त्वका अभाव देखने में आता है, वहाँ दोष शिक्षकोंका ही होता है। ऊपर जो उदाहरण दिया गया है वह एक ऐसे स्कूलका है जहाँ शिक्षक उत्साही है, विद्यार्थी उदासीन हैं और अभिभावक विरोधमें हैं। जहाँ अभिभावक बच्चोंके हाथ-कताई और बुनाई सीखने तथा खादी पहननेके विरोधमें हों और अछूत वालकोंके प्रवेशपर अपने बच्चोंको उठा लेनेकी धमकी देते हों वहाँ तो मुझे जनताके समय और शिक्षकोंके स्वाभिमानकी हानिके सिवाय और कुछ नहीं दिखाई देता। यदि हम अभिभावकों के विरोधके बावजूद राष्ट्रीय शालाएँ चलाते रहें तो हम भी उसी प्रकारके अपराधके भागी होंगे जिस प्रकारके अपराधका आरोप ईसाई पादरियोंपर किया जाता है। हमें इस बातका कोई अधिकार नहीं है कि हम अभिभावकोंके विरोध के बावजूद उनके बच्चोंको अपने मनकी शिक्षा दें और परिवारोंमें कलह करायें। जो विद्यार्थी सोलह वर्षकी आयुसे अधिकके हो गये हैं, जो अपना भला-बुरा समझते हैं और जो कष्ट सहनेकी क्षमता रखते हैं, उनको किसीके द्वारा रक्षण देनेका प्रश्न नहीं उठता। वे स्वावलम्बी हो गये हैं। ऐसे विद्यार्थियोंके लिए जहाँ आवश्यक हो वहाँ निस्सन्देह राष्ट्रीय शाला खोली और चलाई जा सकती है। किन्तु सारे भारतवर्षमें ऐसे विद्यार्थी हैं कहाँ? कितने हैं? और ऐसी शालाएँ कहाँ हैं, जहाँके विद्यार्थियोंकी तुलना हम विवेकपूर्ण, मर्यादाशील, सहनशील, निर्भय और भक्त प्रह्लादके साथ कर सकते हैं? जब भारतवर्ष में