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३६५. पत्र : सतीशचन्द्र दासगुप्तको

आश्रम
साबरमती
२९ अगस्त, १९२६

प्रिय सतीश बाबू,

मैंने आपके पास पहले जिस तरहका एक पत्र भेजा था, मेरे पास उसी तरहका एक पत्र और आया है।

श्री भरुचाने मुझे आपके बारेमें सब-कुछ बता दिया है। वे चाहते थे कि मैं आपको कुछ रुपये भेज दूं। मैं भेजना तो बहुत चाहता हूँ; लेकिन मुमकिन नहीं।

श्री बिड़लाने कहा है कि वे इस संस्थाको सिर्फ एक वर्षके लिए बिना ब्याज और बिना जमानत ७०,००० रुपयेका कर्ज देनेके लिए तैयार हैं। लेकिन मुझे लगता है कि हमें इस कर्जका कोई फायदा तबतक न उठाना चाहिए जबतक संस्थाके कोषमें कुछ अपनी राशि या कमसे-कम उतनी ही राशि संचित न हो। कल परिषद्की बैठकमें इस विषयपर विचार किया गया था। मेरे इस विचारसे अन्य लोग भी सहमत थे। क्या इस बारेमें आपको कोई राय देनी है?

आशा है कि आप और हेमप्रभादेवी, दोनों ही बिलकुल स्वस्थ होंगे।

आपका,

अंग्रेजी प्रति (एस० एन० ११२३४) की माइक्रोफिल्मसे।

३६६. पत्र: रेहाना तैयबजीको

आश्रम
साबरमती
२९ अगस्त, १९२६

प्रिय रेहाना,

तुम्हारा खत और पोस्टकार्ड दोनों मिल गये हैं। दोनों कल ही मिले। पोस्टकार्ड तुमने अहमदाबादके पतेपर भेजा था, इसलिए अहमदाबादसे होता हुआ वह यहाँ एक दिन बाद पहुँचा। और खतका यह हुआ कि लिफाफेका पता उर्दू में होनेकी वजहसे कोई उसे समझ नहीं पाया, इसलिए वह कुछ दिनतक दफ्तरके नोटिस बोर्ड पर लगा रहा। मेरा नाम तुमने अंग्रेजीमें लिखा था, पर उसके नीचे उर्दूमें लिखावट थी। इससे डाक लेनेवाले कार्यकर्त्ताने समझा कि उर्दूमें आश्रमके किसी और आदमीका नाम लिखा हुआ है। काफी पूछताछ करनेपर ही पता चला कि खत बाहर नोटिस