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३६२. पत्र : नानाभाई भट्टको

आश्रम
शुक्रवार, श्रावण बदी ४, २७ अगस्त, १९२६

भाईश्री ५ नानाभाई,

मैंने पाठ्यपुस्तकें पढ़ ली हैं। मैंने 'मधपूडो'[१] को पर्याप्त सावधानीसे पढ़ा है, मैं ऐसा कह सकता हूँ। मैंने तो यह आशा की थी कि मैं उसमें बिलकुल आत्मविभोर हो जाऊँगा; लेकिन ऐसा नहीं हो सका और मुझे लगा कि मुझे उसकी आलोचना करनी ही चाहिए। अलीपर लिखा गया पाठ पढ़कर तो मैं चौंक ही उठा। मुझे लगा कि वह बहुत अलंकारपूर्ण भाषामें लिखा गया है; फिर भी जैसा वह है वैसा मुसलमानोंको पसन्द नहीं आ सकता। मुझे लगता है कि बहुतसे पाठ फिरसे लिखे जाने चाहिए और उनपर फिरसे विचार किया जाना चाहिए। आप चाहेंगे तो मिलनेपर इस विषयपर और बातचीत होगी। हो सकता है कि मेरी राय गलत हो। सम्भव है कि किसी दृष्टिकोणसे यही पुस्तक मनोरंजक लगे। जिन उपनिषदोंको पढ़ते हुए मुझे पहले नींद आती थी, आज उन्हींको में रसपूर्वक पढ़ पाता हूँ। मुख्य लेखक सभी अनुभवी हैं; फिर भी मुझे पाठोंका पसन्द न आना साल रहा है। फिर भी मुझे जैसा लगता है, मैं तो वैसा ही कह सकता हूँ न?

बापू

गुजराती पत्र (एस० एन० १९९४५) की माइक्रोफिल्म तथा एस० एन० १२२६१ से।

३६३. पत्र: जी० सीताराम शास्त्रीको

आश्रम
साबरमती
२८ अगस्त, १९२६

प्रिय महोदय,

आपका विस्तृत पत्र मिला। पढ़कर दुःख हुआ। यदि कार्यकर्त्ता आपकी बात नहीं सुनते (जैसा आपके पत्रसे स्पष्ट मालूम होता है,) तो फिर खादी अभिकरणको चालू रखनेमें क्या लाभ है? तथ्योंकी ओरसे आँख मूंद लेनेसे क्या फायदा ? और

यदि कार्यकर्त्ता आपकी या देशभक्त वेंकटप्पैयाकी बात नहीं सुनना चाहते तो क्या इससे यह नतीजा नहीं निकलता कि वे किसीकी भी बातपर कान नहीं देंगे? मुझे तो

  1. साबरमती आश्रमको राष्ट्रीय शालाकी हस्तलिखित पत्रिका।