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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मुक्तिका द्वार है। मध्य युगके महान सन्तों, कबीर और नानकने तो और भी आगे जाकर चरखेको संसारकी महान शक्ति (विश्व-शक्ति या प्राण) का प्रतीक माना है।

उपनिषद् कहते हैं कि जब ब्रह्मने सृष्टि निर्माणकी इच्छाकी तो उसने सबसे पहले प्राण और अन्न इन दो शक्तियोंकी सृष्टि की और इन शक्तियोंके माध्यमसे क्रमशः प्राण और अन्नके रूपमें सूर्य और चन्द्रमाकी रचना की और जबतक सारे संसारको सृष्टि नहीं हुई तबतक वह इसी प्रकार रचना करता गया। क्रमशः प्राण और अन्नके रूपमें पुरुष और स्त्रीकी रचना हुई। इसप्रकार इन दो शक्तियोंके मिलनेसे ही यह सारा संसार बना। निम्नलिखित मन्त्र होम तथा सप्तपदीसे पहले पढ़ा जाता है :

"ॐ या अकृन्तन्नचयन या अतन्वतयाश्च देवी स्तन्तु अभी तो ततन्थ।
ता स्तवा देवी रजरसे सवयववायुश्च यतीदम परीघतः स्वासः ॥"

"हे वधु! देखो, तुम्हारे लिए ये वस्त्र लाया हूँ। ये पवित्र वस्त्र हैं। ये मेरे देशकी देवियोंने अपने हाथसे सूत कातकर तथा उसे बुनकर तैयार किये हैं। तुम इन्हें श्रद्धापूर्वक पहनो और मेरे साथ यज्ञकी अधिकारिणी बनो। मैं प्रार्थना करता हूँ कि वे ही देवियाँ तुम्हें वस्त्र बुनकर देती रहें और तुम जीवनभर उन्हें पहनती रहो।"

इस प्रकार प्राचीन आर्योंके दर्शनके अनुसार जिसने चरखेको नहीं समझा है वह अपनेको अथवा विश्वको नहीं समझ सकता। वह ब्रह्मको भी उसी प्रकार नहीं समझ सकता जिस प्रकार व्यष्टिको समझे बिना कोई समष्टिको नहीं समझ सकता। अब हमें देखना है कि पश्चिमी (यूनानी) सभ्यता, जिसके ईसाई तथा इस्लामवाद विकसित रूप हैं, इस विषयमें क्या कहती है। प्रत्येक मनुष्य इन पंक्तियोंको जानता है: "जब आदम जमीन खोदता था तथा हव्वा कातती थी तब यहाँ कुलीन कौन था?" इसके अनुसार पतिका कर्त्तव्य हल चलाना और पत्नीका कातना और बुनना था।

जिस प्रकार संस्कृतमें शिवकी पत्नी 'उमा' का अर्थ, बुननेवाली है; उसी प्रकार अंग्रेजीका पत्नीका समानार्थक शब्द 'वाइफ' शब्द 'वीव' (बुनना) धातुसे निकला है। इस प्रकार पाश्चात्य दर्शन भी हमें आर्य दर्शनके समान उसी विचारकी ओर ले जाता प्रतीत होता है। अब राष्ट्रीयता दो शक्तियों, अर्थात् राजनीति और धर्मके समन्वयका परिणाम है। एकके बिना दूसरीका कोई अर्थ नहीं। जहाँ राजनीति बाह्य समानताकी भावनाकी प्रतिष्ठा है वहाँ धर्म आन्तरिक एकताकी भावनाका साक्षात्कार है। राजनीतिकी शाखाके रूपमें आर्थिक मुक्ति तबतक कोई भी हित साधन नहीं कर सकती जबतक उसमें धर्मकी दूसरी शक्ति नहीं मिल जाती।