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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

बाल-विवाहकी यह प्रथा, नैतिक और शारीरिक, दोनों दृष्टियोंसे हानिकर है। इससे हमारी नैतिकताकी जड़ें खोखली होती हैं और हममें शारीरिक निर्बलता आती है। ऐसी प्रथाओंको रहने देकर हम स्वराज्य और ईश्वर दोनोंसे दूर हटते हैं। जिस आदमीको किसी लड़कीकी नाजुक उम्रका कोई खयाल नहीं है, उसे ईश्वरका भी कोई खयाल न होगा। अधकचरे पुरुषोंमें न तो स्वराज्यके लिए लड़नेकी शक्ति होती है और न पानेपर उसे कायम रखनेकी। स्वराज्यकी लड़ाईका अर्थ केवल राजनीतिक जागृति ही नहीं है, बल्कि सामाजिक, शैक्षणिक, नैतिक, आर्थिक और राजनीतिक सभी प्रकारकी जागृति है।

सहवासको आयु कानूनसे बढ़ानेकी कोशिश की जा रही है। कुछ थोड़ेसे लोगोंसे कैफियत माँगनेकी हदतक यह ठीक हो सकता है। परन्तु कानूनसे ऐसी कोई सामाजिक कुप्रथा नहीं रोकी जा सकती। इसे तो केवल जाग्रत लोकमत ही रोक सकता है। मैं ऐसे विषयोंमें कानून बनानेका विरोध नहीं करता, परन्तु मैं तो कानूनसे अधिक जोर लोकमत तैयार करनेपर देता हूँ। यदि मद्रासमें बाल विवाह के विरुद्ध लोकमत जाग्रत होता तो वहाँ ऐसी दुर्घटनाका होना असम्भव हो जाता। इस मामलेसे सम्बन्धित मद्रासका वह युवक कोई अपढ़ मजदूर नहीं है, वरन् पढ़ा-लिखा समझदार टाइपिस्ट है।यदि लोकमत नाजुक उम्रकी लड़कियोंके विवाहका या उससे सहवासका विरोधी होता तो उसके लिए उस लड़कीसे विवाह करना या सहवास करना असम्भव हो जाता। साधारणतः १८ वर्षसे कम उम्रकी लड़कीका विवाह कभी किया ही नहीं जाना चाहिए।

[ अंग्रेजीसे ]
यंग इंडिया, २६-८-१९२६

३५६. टिप्पणियाँ

मालवीयजी और बंगाल सरकार

बंगाल सरकारने अपने कदम पीछे हटाने तथा पण्डित मालवीयजी और डा० मुंजेके खिलाफ उनकी सविनय अवज्ञाके कारण की गई कार्रवाई वापस लेनेका जो साहस दिखाया है, उसके लिए वह अपनी पीठ आप ही भले ठोंक ले[१] लेकिन यदि वह इस कार्रवाईको किसी और शोभनीय ढंगसे वापस लेती तो अच्छा होता। बंगाल सरकारके स्थायी वकीलने जो वक्तव्य दिया है वह मेरी समझमें बहुत अपमानजनक है। सरकारकी ओरसे न तो कोई खेद प्रकट किया गया है और न उन महान् देश-भक्तोंसे क्षमा माँगी गई है— उलटे अप्रत्यक्ष रूपसे यह कहा गया है कि सम्भवतः कलकत्तेमें मालवीयजीकी मौजूदगी और दंगोंमें कुछ सम्बन्ध था। हाँ, सरकारी वकीलको यह बात माननी पड़ी है कि पण्डितजीके व्याख्यानमें— जिसको पढ़कर

  1. देखिए "सत्याग्रहकी विजय", १२-८-१९२६ ।