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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

तुरन्त दूर करनेवाली एकमात्र उपयोगी औषध तथा हमारे इने-गिने सभ्य शिक्षित सज्जनोंके तथा असंख्य अघ-भूखे लोगोंके बीच सच्चा सम्बन्ध स्थापित करनेवाली एक मात्र कड़ी खादी ही है।

खादीके जबर्दस्त समर्थनमें बाबू राजेन्द्रप्रसादने यह उचित ही कहा है :

लेकिन लोग पूछ सकते हैं कि हम अधिक दाम देकर खादी क्यों खरीदें? इस मरे हुए व्यवसायको पुनरुज्जीवित करनेसे हमें लाभ ही क्या है? ये सवाल केवल उन्हीं सज्जनोंको सूझ सकते हैं जिन्हें इस देशके लोगोंको पीस डालने-वाली गरीबीका ज्ञान नहीं है। अनुभव-शून्य अर्थशास्त्र आत्माके प्रसन्न प्रवाहको सुखानेवाली घोर दरिद्रताके सामने मौन है। मैं केवल एक ही उदाहरण दूंगा। यह हिसाब है तो मोटा, किन्तु महज इसी कारण कुछ कम विश्वसनीय नहीं है। सन् १९२२ में हम लोगोंने गरीबोंको कातने और बुननेकी मजदूरीके रूपमें कमसे- कम २६,००० रुपये दिये। १९२५ में हमने ४६,००० रुपये मजदूरी दी जिनमें से २८,००० तो केवल सूत कातने वालोंको दिये गये। ये ऐसे लोग थे जिन्हें सूत न कातनेको अवस्थामें किसी दूसरे कामसे एक पैसा भी नहीं मिलता था। ये आँकड़े बिहार प्रान्तको कांग्रेस कमेटीके अधीन चलनेवाली संस्थाओंके हैं। इस हिसाबमें गांधी कुटीरका हिसाब शामिल नहीं है और गांधी कुटीरका काम अभी हालतक कांग्रेस खद्दर भण्डारके कामसे कहीं अधिक विस्तृत था। मैं बड़ी संजीदगीके साथ पूछता हूँ कि इस प्रान्तमें दूसरी ऐसी कौनसी संस्था है जिसके द्वारा ऐसे गरीबोंको, जो दूसरी तरहसे कुछ भी न कमा सकते थे, सालमें एक लाखसे अधिक रुपये मिलते हों और वह भी दानके रूपमें नहीं— बल्कि मेहनतकी कमाईके रूपमें। सचमुच खद्दरका व्यवसाय मरे हुएको जिलाने-वाला है। इसके पुनर्जीवनसे असंख्य भूखोंको अन्न मिलेगा। इसके लिए जो लोग धन देते हैं और जो उस धनको लेते हैं, दोनों ही धन्य हैं, क्योंकि यह कोरा दान ही नहीं है। यह पानेवालेमें स्वाभिमान भरता है और साथ-साथ देनेवालेको भी नम्र बनाता है।

जो बात बिहारकी है वही और प्रान्तोंकी भी है।

अ० भा० चरखा संघ सारे भारतवर्षमें १८ लाख रुपयेसे अधिकका कारोबार कर रहा है। उसके मुनाफेका अधिकांश ऐसे गरीबोंके ही घरमें जाता है जो इसके बिना बेकार ही बने रहते।

संशयालुचित्त पुरुष इन आँकड़ोंपर ध्यान दें। यदि वे घनका इससे अच्छा उपयोग और बेरोजगार गरीबोंके लिए इससे अच्छा कोई रोजगार सुझा सकें तो सुझायें। यदि नहीं, तो क्या उनका यह धर्म नहीं है कि वे इस बढ़ते हुए बड़े आन्दोलनकीजो जितना राजनीतिक है उतना ही आर्थिक और नैतिक भी है, सहायता करें? इसका नैतिक और आर्थिक लाभ तो तात्कालिक और प्रत्यक्ष होता है, इसका राजनीतिक लाभ दूरस्थ है, किन्तु वह भी इन्हीं दोनोंपर निर्भर है, इनसे अलग नहीं।