३४९. पत्र : मथुरादास त्रिकमजीको
आश्रम
साबरमती
श्रावण शुक्ल १४, १९८२ [२२ अगस्त, १९२६]
यहाँ एक जर्मन बहन आई हैं, यह तो तुम्हें लिख ही चुका हूँ। उन्हें यहाँकी गर्म आबोहवा अनुकूल नहीं आती; इसलिए उन्हें एक महीनेके लिए किसी ठण्डी जगह भेजनेका विचार है। मैंने देवदास[१] और स्टोक्ससे[२] पूछा है। यदि बँगलेमें जगह हो तो मैं उन्हें वहाँ तुम्हारे पास भेजना चाहता हूँ। ये बहन किसीके ऊपर भारस्वरूप नहीं होंगी; बहुत सादी, विनोदप्रिय और सरल स्वभावकी हैं। यदि तुम उन्हें अपने यहाँ जगह दे सको तो मुझे तार दो। मैं चाहता हूँ कि मैं उन्हें यहाँसे बृहस्पतिवारको रवाना कर दूँ।
गुजराती प्रति (एस० एन० १२२५५) की माइक्रोफिल्मसे।
३५०. पत्र : लक्ष्मीदास आसरको
{{right|आश्रम
साबरमती
मंगलवार, श्रावण बदी १ [ २४ अगस्त, १९२६][३]
तुम्हारा पत्र मिला। महुधापर लिखे गये लेखको पढ़ लूंगा और फिर प्रकाशित कर दूंगा। अभी तुम्हारा स्वास्थ्य जैसा हो जाना चाहिए था वैसा क्यों नहीं हुआ, यह बात मेरी समझमें नहीं आती। मैं तो तुम्हें स्फूर्तिसे भरा हुआ और अपेक्षाकृत हृष्ट-पुष्ट देखना चाहता हूँ। जब इस अंग्रेजी मासके समाप्त होनेपर आनेकी बात सोचते हो तो फिर मैं चाहता हूँ कि तुम छः दिन पहले आ जाओ, क्योंकि मोती फिलहाल यहीं है। लेकिन नाजुकलालके पत्रसे ध्वनि निकलती है कि उसे तुरन्त ससुराल पहुँच जाना चाहिए। वेलाबहन तो यही चाहती है कि मोती भादों-भर यहीं रहे। कुछ भी हो, जबतक तुम यहाँ नहीं आते तबतक तो वह यहाँ रहेगी ही; लेकिन मुझे लगता है