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राष्ट्रिय शालाएँ

उच्चतम शिखरपर थी और आज वस्त्रोंमें हमें जो कला दिखाई पड़ती है, भारतकी उस मौलिक कलाकी नकल ही है। कसीदेके लिए चीनी रेशमका प्रयोग खुद मुझे बहुत जरूरी नहीं लगता। पर जो समझते हों कि ऐसा न करनेसे कला नष्ट हो जायेगी, वे चीनी रेशमी धागेका मनमाना इस्तेमाल कर सकते हैं; हाँ, जमीन हाथ-कते सूतके बुने खद्दरकी ही होनी चाहिए। यदि हम स्वयं एक राष्ट्रके रूपमें अपने-आपको विनाशसे नहीं बचा सकते तो हम भारतीय कलाको भी विनाशसे नहीं बचा सकते। फिर चाहे हम कितनी ही दौड़-धूप करें और अखबारोंमें अपीलें निकालें। भारतीय कलाका पुनरुत्थान तभी सम्भव है जब हममें इतना देश-प्रेम पैदा हो जाये कि हम अपने मतभेद भुलाकर एक-दूसरेसे मिल-जुलकर रह सकें और देशकी खातिर अपने सर्वस्वकी बलि दे सकें। इसलिए भारतीय कलाको सुरक्षित रखने और उसका पुनरुत्थान करनेका सबसे अच्छा मार्ग यही है कि पहले हम पर्याप्त भारतीय बनें। लेकिन मुझे तुमको यह सब बतानेकी जरूरत नहीं। तुम तो पूरी तरह राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत हो। ईश्वर तुम्हें दीर्घायु करे और स्वस्थ रखे, जिससे तुम समयके अनुरूप अपनी इस भावनाको पूरी तरह व्यक्त कर सको। मनुष्य मनमें जिस कर्मका संकल्प कर लेता है, वह अन्तमें उसे पूरा कर ही लेता है। यदि तुम्हारे मनमें कुमारी स्लेडसे, जिनका हमारा दिया नाम मीराबाई है, मिलने और मुझे अपने कुछ नये भजन सुनानेकी साध है, तो तुम यथाशीघ्र यहाँ अवश्य आओगी।

तुम सबको प्यार।

तुम्हारा,
बापू

कुमारी रेहाना तैयबजी
कैम्प बड़ौदा

अंग्रेजी पत्र (एस० एन० ९६००) की फोटो-नकलसे।

३४८. राष्ट्रीय शालाएँ

मैंने 'नवजीवन' में ८ वीं अगस्तको राष्ट्रीय शालाओंके विषयमें एक लेख लिखा था। जान पड़ता है उसके सम्बन्धमें कुछ गलतफहमी हो गई है। बम्बईके राष्ट्रीय विनय मन्दिरके आचार्य लिखते हैं :

आपने उक्त लेखमें सलाह दी है कि अब तो सारी राष्ट्रीय शालाएँ बन्दकर दी जानी चाहिए। इसके आधारपर बम्बईके जिन दान-दाताओंसे विनय-मन्दिरको सहायता मिलती थी उनमें से एकने कहा : "अब तो दान देनेकी कोई जरूरत ही नहीं रही।

जिस अनुच्छेदके कारण यह गलतफहमी हुई वह इस प्रकार है:

इसलिए जहाँ पालकोंमें राष्ट्रीय भावना हो और वे अपनी इस भावनाका उचित प्रमाण राष्ट्रीय शालाओंके संचालनके लिए चन्दा देकर सिद्ध करते हों और