यह सब क्या हो सकता है? आपके पत्रकी राह देखता हूँ।
आपका,
मोहनदास
श्री घनश्यामदास बिड़ला
पिलानी
जयपुर स्टेट
सौजन्य : घनश्यामदास बिड़ला
३४७. पत्र : रेहाना तैयबजीको
आश्रम
साबरमती
२१ अगस्त, १९२६
तुम्हारा पत्र पाकर बड़ी खुशी हुई। ऐसा लगता है मानो तुम्हारा पत्र कई युगों बाद मिला है। तुम क्या चाहती हो— मैं सर हेनरी लॉरेंसको सीधा पत्र लिखूं या एक मसविदा तैयार कर दूं जिसे तुम उनको भेज सको? तुम्हारा उत्तर वैसे काफी ठीक है। उनको आँकड़ोंसे जितनी तसल्ली हो सकती है उतनी तुम्हारे पत्रसे हो जानी चाहिए। लेकिन इतनी सारी मेहनतके बाद भी हो सकता है कि जो बात हमें बहुत ठोस और बिलकुल स्पष्ट लगती है, वह उन्हें ऐसी न लगे। लेकिन इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता। 'साँग सेलेशियल'[२] के प्रणेताका मत यही है। हमें निष्काम भावसे कर्म करना चाहिए और फल ईश्वरपर छोड़ देना चाहिए।
देख रहा हूँ कि तुमने अच्छी लड़कियोंकी तरह ही अपना पत्र जितना लम्बा लिखा है उतना ही लम्बा उसका उत्तरांश भी लिखा है और वह शायद स्वयं पत्रसे भी ज्यादा महत्त्वका है। उस अविश्वासी बहनसे कहना कि चरखेके पुनरुद्धारके फलस्वरूप सचमुच ही कई कला-कौशल और शिल्प विनष्ट होनेसे बचे हैं। क्या उनका खयाल यह है कि चीन और फ्रांससे रेशमका धागा आनेसे पहले भारतमें बुनाईकी कला थी ही नहीं? रेशम आना तो मुश्किलसे सौ साल या इससे भी कुछ अर्से पहले शुरू हुआ है। कताई और बुनाईकी कलाके चरम उत्कर्षके दिनोंमें हमारी कला