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पत्र : घनश्यामदास बिड़लाको

शल्य-चिकित्सक कितना ही सफल ऑपरेशन क्यों न करे वह एक प्रत्यक्ष निशान और अप्रत्यक्ष दुष्प्रभाव तो छोड़ ही जाता है। यदि तुम डेनमार्कको जल्दी रवाना हो सको, तो निश्चय ही ज्यादा अच्छा हो क्योंकि आबोहवा बदलना सबसे अच्छा इलाज होगा।

उपवासके बारेमें तुम्हारा कहना बिलकुल ठीक है। हर स्थिति और हर मनुष्य के लिए यह समान गुणकारी नहीं है। यदि उपवास करनेवाले मनुष्यका उद्देश्य सचमुच आत्मिक उत्कर्ष न हो तो उसका मनुष्यकी आत्मापर कोई प्रभाव ही नहीं पड़ता। उद्देश्य शुद्ध न हो तो उपवासका परिणाम बिलकुल स्थूल ही निकलता है। परन्तु आत्मिक विकासके लिए उपवास करना एक ऐसा संयम है जिसे में व्यक्तिके विकास कालमें कभी-न-कभी नितान्त आवश्यक मानता हूँ। मैं 'प्रोटेस्टेंट' मतमें यह एक बड़ी खामी मानता हूँ। अन्य सभी उल्लेख-योग्य धर्मोमें उपवासका आत्मिक महत्त्व स्वीकार किया गया है। यदि भूखकी पीड़ा स्वेच्छासे सहन न की जाये तो स्थूल शरीर या इन्द्रियोंके निग्रहका कोई अर्थ ही नहीं। और मैं कहता हूँ कि यदि स्वयं भूखका अनुभव न किया जाये तो भूखकी मारी गरीब जनताके साथ तादात्म्य स्थापित करनेका कोई अर्थ नहीं है। मैं इस बातसे बिलकुल सहमत हूँ कि कोई मनुष्य अस्सी दिनोंका उपवास करके भी अहंकार, स्वार्थपरता और आकांक्षासे मुक्त न हो; यह सर्वथा सम्भव है। उपवास तो सहारा मात्र है। और चूंकि गिरती इमारतमें खम्भेके खड़े रहनेका महत्त्व भी बहुत होता है, इसलिए संघर्षरत आत्माको उपवासका सहारा भी बहुत होता है।

सस्नेह,

तुम्हारा,
बापू

माई डियर चाइल्ड तथा नेशनल आर्काइव्ज ऑफ इंडियामें सुरक्षित अंग्रेजी पत्रकी फोटो-नकलसे।

३४६. पत्र : घनश्यामदास बिड़लाको

आश्रम

साबरमती

शुक्रवार, श्रावण शुक्ल १२, २० अगस्त, १९२६
भाई घनश्यामदासजी,

इसके साथ मोतीलालजीका तार रखता हूँ। उसका उत्तर जो मैंने दिया है वह उसी तारके पीछे लिखा है। आपको मैंने तार भी दिया है। वह यह है : मोतीलालजीका तार है कि गोरखपुरसे परिषदके चुनावके लिए मैंने आपके नामकी ताईद की है। मैंने जवाब दिया कि मुझे आपकी उम्मीदवारीकी बात मालूम नहीं। जरूर कहीं कुछ गलती होगी। इस फर्जी दरखास्तके बारेमें आपको कुछ मालूम है।[१]

  1. मूलमें यह तार अंग्रेजीमें दिया गया है।