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३४४. पत्र : मुत्तुस्वामी मुदलीको

२० अगस्त, १९२६

मैंने आपके १७ जुलाईके पत्रके सिलसिलेमें पूरी तौरपर जाँच-पड़ताल कर ली है और में इस निष्कर्षपर पहुँचा हूँ कि श्री कोटकका कोई दोष नहीं।[१]

अंग्रेजी प्रति (एस० एन० ११२०३ ) की माइक्रोफिल्मसे।

३४५. पत्र : एस्थर मेननको

आश्रम
साबरमती
२० अगस्त, १९२६

रानी बिटिया,

तुम्हारा पत्र मिल गया। टाइपकी मशीनोंके बारेमें तुम्हारी उक्ति मैंने गलत नहीं समझी बल्कि, मुझे तो वह बहुत पसन्द आई।

आश्रमका शाब्दिक अर्थ वास-स्थान है। पर उसके साथ कुछ विशेष बातें जुड़ी हुई हैं: वहाँ सादगी होनी चाहिए। वह मात्र शिक्षण संस्था न हो। आजन्म संयमके प्रति निष्ठावाले लोगोंकी वहाँ प्रधानता होनी चाहिए। उसके जीवनमें संन्यास अर्थात् संसारसे विरक्ति होनी चाहिए। इसलिए आश्रमको ऐसी संस्था होना चाहिए जिसने स्वेच्छासे निर्धनता ग्रहण की हो। इसलिए उसके वातावरणमें सादगीका आग्रह होना चाहिए। उसका एक अटल उद्देश्य आत्म-साक्षात्कारको दृष्टिमें रखकर चरित्र-निर्माण करना होना चाहिए। ऐसी संस्थामें सेव्य-सेवक भावकी कोई गुंजाइश नहीं। आश्रमके सभी सदस्योंको, चाहे वे स्त्री हों या पुरुष, शारीरिक श्रम करना चाहिए और सभीको समान स्थान प्राप्त होना चाहिए। उसमें किसीके किसीसे श्रेष्ठ होनेकी भावनाका कोई स्थान नहीं है। आश्रमका प्रधान एक पिता या माताके रूपमें होता है और उससे अपेक्षा की जाती है कि वह लोगोंको अपने बच्चोंके समान मानेगा। मेरा खयाल है कि अब मैं तुम्हें शायद आश्रमके लक्षण बहुत कुछ बता चुका हूँ।

मैं जब भी किसी चिकित्सकको दुर्बल या बीमार देखता हूँ तो मुझे दुःख होता है। यह बात हमें सदा स्मरण दिलाती रहती है कि हमारा चिकित्सा शास्त्र बहुत अपूर्ण है, कम भरोसेका है और अभी प्रयोगकी अवस्थामें है। यदि हम इसपर

पर्याप्त तटस्थ भावसे विचार करें तो हम तुरन्त समझ सकते हैं कि इसमें रोगोंका अचूक इलाज है ही नहीं और इससे इसकी अन्दरूनी कमजोरी हमारी समझमें तुरन्त आ जाती है। अत्यन्त गुणकारी औषधियाँ भी अनेक वार कारगर नहीं होतीं।

  1. यह निश्चित नहीं किया जा सका कि यह पत्र किस संदर्भ में लिखा गया था।