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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

प्रजननमें लगाने या केवल भोग-लिप्साकी तृप्तिके लिए खर्च करनेसे हमारे अंग क्षतिपूर्तिके लिए निर्मित इस जीव-तत्वके भंडारसे वंचित हो जाते हैं और उन्हें इससे धीरे-धीरे और अन्तमें हानि उठानी पड़ती है। ये तथ्य हैं जिनके आधारपर व्यक्तिगत यौन आचार-नीति बनी है। उस नीतिका यही तकाजा है कि हम यदि पूर्ण निग्रह नहीं तो कमसे-कम संयमसे तो काम लें। संयमका आरम्भ यहींसे होता है, यह इस बातसे स्पष्ट हो जाता है।"

यह आसानीसे देखा जा सकता है कि लेखक रासायनिक अथवा यांत्रिक साधनोंसे गर्भ-निरोधका विरोधी है। वह कहता है:

इनसे आत्मसंयमके सभी दूरदर्शितापूर्वक हेतु समाप्त हो जाते हैं और विवाहित जीवनमें भोग-लिप्साको सहज-स्वाभाविक मान लिया जाता है जो बुढ़ापा आ जाने या वासना कम हो जानेपर ही सीमित हो सकती है। किन्तु इसके अलावा इसका प्रभाव अवश्य हो वैवाहिक सम्बन्धोंको सीमासे बाहरतक पड़ता है। इससे अनियमित, स्वच्छंद और असफल सम्बन्धोंका मार्ग प्रशस्त हो जाता है, और ये सम्बन्ध आधुनिक उद्योगों, सामाजशास्त्र और राजनीतिकी दृष्टिसे खतरनाक हैं। मैं यहाँ इस सम्बन्धमें विस्तारसे विचार नहीं कर सकता। इतना ही कहना पर्याप्त है कि गर्भ निरोधके कृत्रिम साधनोंसे वैवाहिक जीवनमें और उसके बाहर भी असंयत भोग-लिप्साका आचरण आसान हो जाता है। और यदि मेरे शरीर रचना सम्बन्धी तर्क, जो मैंने ऊपर दिये हैं, ठीक हैं, तो इन साधनोंसे व्यक्तियोंका और समस्त जातिका अवश्य ही अहित होगा।

भारतीय युवक श्री ब्यूरोके अपनी पुस्तकके अन्तमें दिये गये इस उद्धरणको अपने हृदयमें अंकित कर लें : “जो जातियाँ आचारवान रहेंगी, भविष्य उनके साथ रहेगा।"

[ अंग्रेजीसे ]
यंग इंडिया, १२-८-१९२६

३३६. भूल-सुधार

आचार्य मलकानीने मेरा ध्यान पिछले हफ्ते छपे अपने लेखमें[१] 'छपाई' की दो भद्दी भूलोंकी ओर खींचा है। दूसरे स्तम्भके तीसरे पैरामें 'क्विकली' की जगह 'क्वायटली' और 'क्लेवर' की जगह 'क्लीयर' शब्द होना चाहिए था।

[ अंग्रेजीसे ]
यंग इंडिया, १९-८-१९२६
  1. प्रो० मलकानी द्वारा लिखित ‘बारडोली ताल्लुकेमें खेतीकी दशा लेख यंग इंडिया, १२-८-१९२६ में प्रकाशित हुआ था।