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३३१. पत्र: मथुरादास त्रिकमजीको

आश्रम
साबरमती
बुधवार, श्रावण सुदी १०, १८ अगस्त, १९२६

चि० मथुरादास,

तुम्हारा पत्र मिला। पवनामें हिन्दुओं और मुसलमानोंका जबर्दस्त दंगा हुआ था। अखबारोंसे मुझे मालूम हुआ है कि उसमें बहुतसे हिन्दुओंका नुकसान हुआ है। इस कार्यके लिए श्रीमती नायडू[१] चाहती हैं कि तुम्हारे पास जो रुपये बाकी बचे हैं सो उन्हें दे दिये जायें। मेरी अपनी रायमें तुम्हारे पास जो रुपये बाकी हैं, वे रेल-दुर्घटना आदिके कारण बरबाद हुए लोगोंकी सहायताके लिए हैं। पबनाके पीड़ितोंका मामला कुछ दूसरे ढंगका है, इसलिए इसके लिए नया चन्दा किया जाना चाहिए। फिर भी मूल धनदाताओंसे पूछकर निश्चय ही उनके पैसेका जो ठीक समझा जाये सो उपयोग किया जा सकता है।

तुम्हारे स्वास्थ्यको बहुत ज्यादा वर्षा कहीं नुकसानदेह तो नहीं होती? इस बार सभी जगह बरसात बहुत अच्छी हो रही है।

श्री मथुरादास त्रिकमजी

होमी विला

पंचगनी

गुजराती प्रति (एस० एन० १२२५०) की माइक्रोफिल्मसे।

३३२. पत्र : अब्बास अब्दुल्लाभाई बानपारीको

आश्रम
१८ अगस्त, १९२६

भाईश्री ५ अब्बास अब्दुल्लाभाई,

'घी' शब्दका प्रयोग केवल गाय-भैंसके दूधसे निकले हुए पदार्थके लिए किया जाता है। मेरे कहनेका अभिप्राय इतना ही था कि अन्य वस्तुओंमें से निकले ऐसे पदार्थको 'घी' नहीं कहा जा सकता, अन्य चीजोंमें से जो चिकनाई निकलती है वह तेलके नामसे पुकारी जाती है और उसके गुण घीसे भिन्न होते हैं; ऐसा समझकर उसका उपयोग करनेमें कोई हानि नहीं है। धर्मकी दृष्टिसे उसका विरोध किया ही नहीं जा सकता। मैं स्वयं रजस्वला स्त्रीको अस्पृश्य नहीं मानता और उसके द्वारा

  1. सरोजिनी नायडू