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३२९. पत्र : सतीशचन्द्र दासगुप्तको

आश्रम
साबरमती
१७ अगस्त, १९२६

प्रिय सतीशबाबू,

आपका पत्र मिला। मेरे खयालसे मावलंकरका मत यह नहीं है कि यदि 'शेयर' दूसरोंके नाम किये जा सकें तो यह जमानत न लेना ही अच्छा रहेगा। कुछ भी हो, यदि 'शेयर' दूसरोंके नाम करना सम्भव हो तो फिर और कुछ करनेकी जरूरत नहीं रहती। फिर भी यदि आप किसी कारणवश इसे सम्भव न मानते हों, तो आपके दूसरे सुझावके मुताबिक काम किया जा सकता है।

सोढपुरकी और हेमप्रभादेवीकी राशियोंका उपयोग आप जैसा भी चाहें, करें। मेरी तो बस एक ही शर्त है और इसमें जरा भी ढिलाई नहीं की जानी चाहिए कि हेमप्रभादेवीसे रुपया तभी लिया जाये जब वे स्वयं इसके लिए बहुत आग्रह करें।

आपके मनमें जबतक चिन्ताएँ बनी हैं, तबतक समझना चाहिए कि कुछ गड़बड़ी है। यदि आप प्रसन्न और सुखी न रहेंगे तो वे भी प्रसन्न और सुखी न रह सकेंगी। इसलिए मैं कहता हूँ कि आप धीरे-धीरे आगे बढ़ें। बेसब्रीसे काम न लें। नई खुराक तभी ली जाये जब पहली अच्छी तरह पच जाये।

हाँ, मैंने टॉल्स्टॉयकी कहानी "एक आदमीको कितनी जमीन दरकार है"[१] कई बार पढ़ी है। वर्षों पहले मैंने उसका अनुवाद 'इंडियन ओपिनियन' में छापा था और बादमें एक छोटी पुस्तिकाके रूपमें प्रकाशित भी किया था। यदि टॉल्स्टॉयको शवके दाहसंस्कारकी पर्याप्त जानकारी होती तो वे इससे भी कम स्थानकी आवश्यकता बतलाते। यदि शवको वैज्ञानिक विधिसे मूल तत्त्वोंमें रूपान्तरित किया जाये तो वह पाँच तत्त्वोंमें मिल जायेगा और तब तनिक भी स्थानकी जरूरत नहीं रहेगी। हमारी मानसिक वृत्ति बिलकुल यही होनी चाहिए। व्यवहारमें तो हम सदा सिद्धान्तसे कम ही रहेंगे। ऐसी वृत्ति बना लेनेपर यदि हम कोई छोटी-सी वस्तु भी रखेंगे, तो उसका स्वामित्व हमें सालेगा। तब हम उस स्वामित्वको अपना अधिकार नहीं, बल्कि अपनी असमयता ही समझेंगे। और इसलिए उससे एकाएक वंचित कर दिये जानेपर हमें लगेगा कि चलो हमारा बोझ इतना तो हल्का हुआ। और अन्तमें हमारा देहपात भी हमें ऐसा ही लगेगा। इसीलिए मैं चाहता हूँ कि हम अपने सभी यज्ञकर्मों- को करें और उसके पश्चात् प्रफुल्लित और निलिप्त रहें। आप खादीके कामका संगठन जितना निर्लिप्त होकर करेंगे वह उतना ही बढ़ेगा।

  1. "हाउ मच लैंड ए मैन नीडस"।