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३२५. पत्र: प्रफुल्लचन्द्र सेनको

आश्रम
साबरमती
१३ अगस्त, १९२६

प्रिय मित्र,

आपका पत्र मिला और वह मुझे बहुत अच्छा लगा। आपके कामके तरीकेको पूरी तरह पसन्द करते हुए भी, मैं खादी प्रतिष्ठान और अभय आश्रम द्वारा अपनाये गये तरीकोंकी भी उतनी ही पुष्टि कर सकता हूँ । हरएक तरीकेका अपना स्थान है। खादी प्रतिष्ठानके काममें भी शोषण कतई नहीं है। किसका शोषण? किसके द्वारा शोषण? उसमें स्त्रियोंका शोषण तो है नहीं, क्योंकि खादी प्रतिष्ठानने तो उन्हें एक बाजार देकर उनके सूतकी ज्यादासे-ज्यादा बिक्री सम्भव बना दी है। खादी प्रतिष्ठानमें शोषण हो नहीं सकता, क्योंकि वह अपने हिस्सेदारों या निर्देशकोंके लिए कोई मुनाफा नहीं कमाता। प्रत्युत बात इससे उलटी है। उसके कई सदस्य खादी प्रतिष्ठानको अपनी सर्वोत्तम सेवाएँ दे रहे हैं और उनकी ये सेवाएँ स्वराज्यकी ओर हमारी प्रगतिमें उतना ही महत्त्वपूर्ण योग देती हैं जितना आपकी सेवाएँ, अन्य किसी रूपमें नहीं तो इस रूपमें ही सही कि खादीके व्यापक उत्पादन और विक्रयसे निकट भविष्यमें विदेशी वस्त्रोंका बहिष्कार सम्भव होता है। यह कहना गलत है कि खादी प्रतिष्ठानके कार्यकर्त्ता कातनेवालोंसे सम्पर्क नहीं रखते। हाँ, यह कहना सही होगा कि उनका सम्पर्क उतनी निकटताका नहीं रहता जितना आपका । लेकिन इसका अर्थ सिर्फ इतना ही है कि आपका जोर कार्यकी गहराईपर है और खादी प्रतिष्ठानका उसकी व्यापकतापर। दोनों ही प्रवृत्तियाँ जरूरी और एक दूसरेकी अनुपूरक हैं।

अभय आश्रमकी स्थिति दोनोंके बीचकी है; अतः यदि इन तीनों कार्योंको सम्मिलित, सहयोजित और नियमित ढंगसे चलाया जाये, तो फल कहीं अच्छा निकलेगा। इसलिए आपको मेरी सलाह यही है कि आप अपने सराहनीय कार्यक्रमका त्याग न करें; बल्कि उसके बलपर अखिल भारतीय चरखा संघके बंगालके प्रतिनिधिकी सहायता और सहमति प्राप्त करें। यदि आप नहीं चाहते कि आप इनमें से किसी भी संस्था के साथ मिलें, तो आपको उसकी जरूरत नहीं है।

हृदयसे आपका,

बाबू प्रफुल्लचन्द्र सेन

दुआडण्डू खादी केन्द्र
डा० मोयल बाँदीपुर

जिला हुगली

अंग्रेजी प्रति (एस० एन० ११२२४) की माइक्रोफिल्मसे।