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३२१. पत्र : देवदास गांधीको

आश्रम
साबरमती
गुरुवार, श्रावण सुदी ४, १२ अगस्त, १९२६

चि० देवदास,

तुम्हारा पत्र मिला। मैंने तार द्वारा तुम्हारी सूचना पाकर शीघ्रातिशीघ्र कार्रवाई की थी। चरखा तुम्हें मिल गया होगा। पूनियोंके लिए तो मैं कहना ही भूल गया था और इसलिए वे शायद बाँधी न गई हों। श्रीमती बेसेंट और महारानी[१] की तुलना नहीं की जा सकती। मैंने महारानीके साथ कोई अन्याय नहीं किया है।[२] श्रीमती बेसेंट सार्वजनिक कार्यकर्त्री हैं। यदि वे चरखा खरीदती हैं तो उसका महत्त्व समझती हैं। महारानी चरखा चलायेंगी भी तो केवल अपने मनोविनोदके लिए। तटस्थतामें भी विवेकके लिए तो स्थान रहता ही है। मैंने तो तुम्हें एक ही कारण बताया था, दूसरा कारण तो महाराजाकी बात बताते हुए तुमने अपने पत्रमें स्वयं ही दिया है। मैं महाराजाके सम्बन्धमें बहुत कुछ जानता हूँ। उनका जीवन तनिक भी शुद्ध नहीं है और उनका मन बहुत चंचल है। उनमें स्थिरता तनिक भी नहीं है। वे मुझसे कोई काम निकालनेकी आशा रखते हैं; किन्तु मैं उनकी आशा पूरी नहीं कर सकता। मुझे तो उनके चरखा चलाने में भी उनकी इसी आशाकी गंध आती है। मैंने तुम्हें इसीलिए चेताया है। उसके बाद क्या करना उचित है यह तुम्हारे विवेकपर छोड़ दिया है ताकि महाराजाके प्रति रंचमात्र भी अन्याय न हो।

तुम्हारी वहाँ रहनेकी इच्छा है, यह मैं समझ गया। तुम वहाँ खुशीसे रहो और जब स्वास्थ्य पूरे तौरपर सुधर जाये तभी आओ। शिमला जाना चाहो तो अवश्य जाओ। शिमला जाओ या मसूरी अथवा कहीं अन्यत्र जाओ, तुम्हें सभी स्थानों में कुछ-न-कुछ काम तो अवश्य करना है। खादीकी बिक्री तभी होगी। सभी काम तुम अपने हाथसे करते रहना। तुमने छगनलालको यहाँसे जो खादी भेजनेके लिए लिखा था सो मैंने उसे भण्डारमें रोक रखनेके लिए कह दिया है। मैंने पत्रमें जो-कुछ लिखा है उसको ध्यानमें रखते हुए तुम खादी कहाँ मँगवाना चाहते हो?

प्यारेलालने जैसा पत्र तुम्हें लिखा है, वैसा ही महादेवको लिखा है। इस समय यहींसे रुपया भेजनेका प्रबन्ध हो जायेगा। हरिलाल अभी तो यहीं है। वलीबहन[३] आती रहती हैं।

बापू

गुजराती पत्र ( एस० एन० १२२४३) की फोटो-नकलसे।

  1. नाभा राज्यको महारानी।
  2. देखिए "पत्र : देवदास गांधीको", ३-८-१९२६ ।
  3. हरिलालकी साली ।