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क्या अहिंसाकी कोई सीमा है?

याद आती है। उस समय असहयोग जोरोंपर था। कुछ गाँववालोंको लूटा गया और वे लुटेरोंके हाथ अपनी स्त्रियों, बच्चों और घरोंका सामान छोड़कर भाग गये। अपना दायित्व इस तरह छोड़कर भाग जानेकी कायरताके लिए जब मैंने उनकी भर्त्सना की तो उन्होंने निर्लज्जतापूर्ण ढंगसे अहिंसाकी दुहाई दी। मैंने सार्वजनिक रूपसे उनके इस व्यवहारकी निन्दा की और कहा कि मेरी अहिंसाके अनुसार जो अहिंसाकी वृत्ति न रख सकते हों और जिनकी रक्षामें स्त्रियाँ और बच्चे हों, उनके द्वारा हिंसा जायज है। कायरताको छिपाने के लिए अहिंसाकी आड़ लेना अहिंसा नहीं है। अहिंसा तो वीरोंका गुण है। अहिंसाके पालनमें, तलवार चलानेसे कहीं अधिक वीरताकी जरूरत है। कायरता और अहिंसाका कहीं कोई मेल नहीं है। तलवार छोड़कर अहिंसा ग्रहण करना सम्भव है और कभी-कभी तो यह आसान भी होता है। इसलिए, यह बात पहलेसे ही मान ली जाती है कि अहिंसा ग्रहण करनेवाले व्यक्तिमें चोट करनेकी क्षमता भी होगी ही। वह बदला लेनेकी अपनी प्रवृत्तिपर जानबूझ कर लगाम लगा देता है। परन्तु निष्क्रिय होकर औरतों-जैसे असहाय बनकर आत्मसमर्पण करनेसे तो बदला लेना ही कहीं अच्छा है। बदला लेनेसे क्षमा बड़ी चीज है। बदला लेना भी एक कमजोरी ही है। बदला लेनेकी इच्छा, इस भयसे उत्पन्न होती है कि शायद कोई हानि— वास्तविक या काल्पनिक— होगी। जब कुत्ता डरता है तभी भौंकता और काटता है। जिसे संसारमें किसीसे भय नहीं वह उस आदमीपर क्रोध करनेमें भी एक झंझट-सी महसूस करेगा जो उसे हानि पहुँचानेकी विफल चेष्टा कर रहा हो। छोटे लड़के सूर्यपर धूल फेंकते हैं परन्तु वह तो उनसे बदला नहीं लेता। इससे उनकी अपनी ही हानि होती है।

मुझे पता नहीं कि 'जस्टिस' पार्टीवालोंके दुष्कृत्योंका जो वर्णन पत्रलेखकने किया है, ठीक है या नहीं। शायद, इसका एक दूसरा भी पक्ष होगा। लेकिन, सभी बातें, सच्ची मान लेनेपर, मैं तो उन लोगोंको बधाई ही दूंगा जिनके ऊपर थूका मैला फेंका गया, या मार पड़ी। यदि अपमान सहकर मनमें भी बदला लेनेके भाव न लानेका साहस उनमें था तो इससे उनको कोई हानि नहीं पहुँची है। परन्तु यह उनकी भूल ही कही जायेगी, यदि उन्होंने क्षुब्ध होते हुए भी केवल हवाका रुख देखकर बदला न लिया हो। स्वाभिमान हवाका रुख देखकर नहीं चलता। मुझे यह समझमें नहीं आता कि ये प्रतिष्ठित कांग्रेसी, जो 'जस्टिस' पार्टीके उन चन्द गुंडोंसे गिनतीमें इतने अधिक थे, उन्हें कौनसी सजा दे सकते थे? क्या वे भी मैलेका जवाब मैलेसे, थूकका थूकसे और गालीका गालीसे देते? या इस बहुसंख्यक दलके स्वाभिमानकी रक्षा उन थोड़ेसे गुंडोंकी उपेक्षा करने में ही होती? असहयोगकी जिस समय हवा चल रही थी, उस समयकी बात मैं जानता हूँ कि जो गुंडे सभाओंमे गड़बड़ करना चाहते थे उनके साथ कैसा व्यवहार होता था। स्वयंसेवक उन्हें पकड़कर बैठाये रहते मगर कोई चोट नहीं पहुँचाते थे और यदि वे शोर करते तो उनके गुल-गपाड़ेकी उपेक्षा ही की जाती थी। मैं जानता हूँ कि उस जमानेमें भी बहुत बार अहिंसाका नियम तोड़ा जाता था और जो लोग सभाओंमें विघ्न डालते या विरोधमें कुछ बोलते