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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

जीवनके ऐसे तत्त्व हैं, जिन्हें समस्त उच्चतर सामाजिक संस्कृतिके विकासको पूर्ण और स्थायी शर्तोंके रूपमें स्वीकार किया ही जाना चाहिए और इसीलिए हमें चाहिए कि हम इन्हें सम्भावित गम्भीर आर्थिक परिवर्तनोंसे पैदा हो सकनेवाली अव्यवस्थासे मुक्त रखें। स्वयं आर्थिक उन्नति व्यापक सामाजिक उन्नतिसे घनिष्ठ रूपेण सम्बन्धित है और यह इसलिए कि आर्थिक सुरक्षा और सफलता अन्ततोगत्वा हमारे दृढ़ सामाजिक सहयोगपर ही निर्भर है। जो आर्थिक परिवर्तन इन बुनियादी शर्तोंकी उपेक्षा करके किया जायेगा वह अपने आप असफल हो जायेगा। इसलिए यदि हम यौन सम्बन्धोंकी विभिन्न प्रथाओंके स्वतन्त्र मूल्यका नैतिक और सामाजिक दृष्टियोंसे अध्ययन करना चाहते हैं तो यह प्रश्न कि वह कौन-सा तरीका है जिससे हमारे समस्त सामाजिक जीवनको जड़ें अधिक गहरी और मजबूत हो सकती हैं, सर्वाधिक महत्त्वका बन जाता है। यह विचारणीय है कि किस प्रकार हमारे जीवनके विभिन्न आयामोंमें हमारे भीतर अधिकतम दायित्व, आत्मत्याग और स्वार्थ निग्रहकी भावना पैदाकर सके और असंयत स्वार्थ और चंचलतापूर्ण विलासिताको ज्यादासे-ज्यादा कारगर तौरपर संयत कर सकनेको क्षमता उत्पन्न की जा सकती है। इस विषयपर इस दृष्टिसे विचार करनेपर यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि एक पत्नीव्रतको सामाजिक और शिक्षणात्मक महत्त्वके कारण सभी उच्चतर सभ्यताओंकी स्थायी विरासतका एक भाग बना दिया जाना चाहिए। कोई भी सच्ची प्रगति विवाहके इस सम्बन्धको ढीला करनेके बजाय उसे अधिक दृढ़ हो बनायेगी।... परिवार मनुष्यके सामाजिक जीवनकी तैयारीका केन्द्र है। इसका अर्थ यह है कि वहाँ दायित्व, सहानुभूति, आत्मसंयम, पारस्परिक सहिष्णुता, और पारस्परिक आदान-प्रदानका शिक्षण मिलता है। केवल परिवार ही ऐसे शिक्षणका केन्द्र हो सकता है, क्योंकि परिवार तो जबतक व्यक्तिका जीवन है। तबतक बना ही है और उसे अपने अंकमें लिए है। इस स्थायित्वके कारण ही जीवनयापनको अन्य विधियोंकी अपेक्षा सामान्य पारिवारिक जीवन पारस्परिक आदान-प्रदानके लिए अधिक उपयुक्त, अधिक गहरा और अधिक स्थायी अवसर प्रदान करता है। कहा जा सकता है विवाह सम्बन्धको अविच्छेद्यता समस्त मानवीय सामाजिक जीवनका प्राण है।

लेखक ओग्युस्त कौम्तको उद्धृत करता है: “व्यक्तिका मन तो बहुत चंचल होता है इसलिए समाजको मनको इस मनमानीमें बाधा डालनी ही चाहिए; अन्यथा मानवजीवनमें निरर्थक और निरुद्देश्य अनुभवोंके अतिरिक्त कुछ भी नहीं बच रहेगा।"

डा० तुलेने लिखा है : “विवाहित लोगोंके सुखमें एक यह धारणा बहुधा बाधक बन जाती है कि प्रेम बड़ा ही दुर्दम तत्त्व है और उसे विवश होकर