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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

था कि शौक और जरूरियातके मामलेमें सम्भवतः अंग्रेज लोग ही दुनिया भरमें सबसे अधिक फिजूलखर्च होंगे। उन्होंने कहा था कि स्काटलैंडके अस्पताल इंग्लैंडके अस्पतालसे किसी बातमें कम न होते हुए भी उनकी अपेक्षा बहुत ही कम खर्चमें चलाये जाते हैं। क्या फीस बढ़ जानेके साथ-साथ कानूनी बहसका दर्जा भी बढ़ जाता है?

इस प्रस्तावके विरोधमें जो तीसरी दलील पेश की गई है वह यह है कि इंग्लैंड के व्हाइट हॉलमें बैठनेवाले जजोंके बराबर हिन्दुस्तानी जजोंकी इज्जत नहीं होगी। यदि यह दलील प्रसिद्ध वकील लोगोंने पेश न की होती तो यह हँसीमें उड़ा दी जाती। फैसलोंकी इज्जत जजोंकी निष्पक्षतापर निर्भर है या कचहरीके मुकाम या जजोंकी जाति या चमड़ेके रंगपर? यदि सचमुचमें मुकाम या जजोंके जन्म या वर्णपर ही उनके फैसलेकी प्रामाणिकता निर्भर हो, तो क्या अब वह समय नहीं आ गया है कि इस भ्रमको मिटानेके लिए ही दिल्लीमें अन्तिम न्यायालय लाया जाये और वहाँ हिन्दुस्तानी जजोंको ही नियुक्त किया जाये? या इस दलीलमें, ऐसा पहलेसे ही मान लिया गया है कि हिन्दुस्तानी जज पक्षपात करते ही हैं, कभी-कभी बेचारे गरीब अज्ञानवश यूरोपीय कलक्टरको ही चाहते हैं। परन्तु अनुभवी वकीलोंसे तो अपेक्षाकृत अधिक बुद्धिमानी और निर्भयताकी आशा की ही जा सकती है।

मेरी विनम्र सम्मतिमें यद्यपि इन तीनों दलीलोंमें से एकमें भी कुछ सार नहीं है, तथापि हमें केवल इसलिए अपना सर्वोच्च न्यायालय दिल्लीमें ही रखना चाहिए कि हमारा स्वाभिमान इसीमें है। दूसरोंके फेफड़े चाहे लाख अच्छे हों परन्तु जिस प्रकार हम उनसे साँस नहीं ले सकते, उसी प्रकार न्याय भी हम इंग्लैंडसे उधार या मोल नहीं ले सकते। हमें तो हमारे अपने ही जज जो-कुछ कर दिखायें, उसीपर गर्व करना होगा। सारे संसारमें यह देखा जाता है कि जूरियोंका किया हुआ न्याय बहुधा गलत होता है। परन्तु इसलिए सभी जगह सब लोग इस खामीको खुशीसे स्वीकार करते हैं, इसलिए कि इससे प्रजामें स्वतन्त्रताके भावको बल मिलता है और अपनी बराबरीवालोंके द्वारा ही न्याय पानेकी सर्वथा उचित अभिलाषाकी पूर्ति होती है। वकीलोंके क्षेत्रमें भावनाकी इज्जत कुछ कम ही होती है, परन्तु वैसे भावना ही संसारका शासन करती है। भावनाके हावी हो जानेपर अर्थशास्त्रीय या अन्य प्रकारके विचारोंको उठाकर ताकमें रख दिया जाता है। भावनाका नियमन सम्भव है और किया भी जाना चाहिए। किन्तु उसे न तो निर्मूल ही किया जा सकता है और न किया ही जाना चाहिए। यदि देश भक्ति कोई पाप नहीं है, तो सर्वोच्च न्यायालयको दिल्लीमें ही लाकर रखना भी कोई पाप नहीं है। जैसे स्वराज्यका स्थान सुराज नहीं ले सकता, वैसे ही विदेशी सुन्याय हमारे अपने घरके न्यायकी जगह नहीं ले सकता।

[ अंग्रेजीसे ]
यंग इंडिया, १२-८-१९२६