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आचार्य ध्रुव और राष्ट्रीय शिक्षा

जहाँ आवश्यक हो वहाँ राष्ट्रीय शाला खोली और चलाई जा सकती है; किन्तु सारे भारतवर्ष में ऐसे विद्यार्थी हैं कहाँ? कितने हैं? और ऐसी शालाएँ कहाँ हैं, जहाँके विद्यार्थीकी तुलना हम विवेकपूर्ण, मर्यादाशील, सहनशील, निर्भय और भक्त प्रह्लादके साथ कर सकते हैं? जब भारतवर्षमें ऐसे विद्यार्थी बड़ी संख्यामें उत्पन्न हो जायेंगे तब भारतवर्ष नवीन चेतनासे ओतप्रोत हो जायेगा और फिर किसीको ऐसा प्रश्न हो नहीं करना पड़ेगा कि स्वराज्य कहाँ है।

ऐसे विद्यार्थियोंकी जबरदस्त फसल उत्पन्न करनेके लिए हमें केवल सच्चे राष्ट्रीय स्कूलोंका संचालन करना ही आवश्यक है, फिर उनमें चाहे कितने ही कम विद्यार्थी क्यों न हों। जहाँ माता-पिता बालकोंको भेजते हुए ऐसा मानते हैं कि हम मेहरबानी कर रहे हैं और जहाँ विद्यार्थी जाकर शान बघारते हों और इस तरहकी प्रत्यक्ष या परोक्ष धमकी देते हों कि यदि आपने मदद नहीं की तो हम सरकारके साथ हो जायेंगे, ऐसी जगह राष्ट्रीय शालाकी जरूरत नहीं है, ऐसा हमें निश्चय ही समझ लेना चाहिए। नाम मात्रकी ऐसी राष्ट्रीय शालाओंको बन्द कर दिया जाना चाहिए। हमें समझ लेना चाहिए कि असहयोग क्या है। हम उसका मूल्यांकन करनेकी परिस्थितिमें हैं। उसके खतरोंसे समाज बे-खबर नहीं है और इसलिए असहयोग करनेवाली शालाओंका मार्ग स्पष्ट है। हम स्वयं अपने-आपको भ्रमित न करें। उन्नति और अवनतिको समान समझते हुए अपने विश्वासपर दृढ़ रहकर यदि हम अपना काम करते चले जायें तो अन्तमें श्रेय ही मिलेगा।

[ गुजरातीसे ]
नवजीवन, ८-८-१९२६

३०२. आचार्य ध्रुव और राष्ट्रीय शिक्षा

आचार्य आनन्दशंकरभाई लिखते हैं :[१]

उपर्युक्त पत्र पढ़कर मैंने तो कदापि ऐसा नहीं समझा था कि आचार्य ध्रुव अथवा आचार्य गिडवानीपर राष्ट्रीय शिक्षाके विरुद्ध होनेका किसी प्रकारका आक्षेप हो सकता है। इन दोनों सज्जनोंको अच्छी तरहसे जाननेके कारण मेरे मनमें तनिक भी शंका नहीं उठी। परन्तु तटस्थ पाठकके मनमें ऐसी शंका उठना सम्भव है इसलिए आनन्दशंकरभाईका पत्र आवश्यक ही है। उनका विद्यापीठसे निकटका और मधुर सम्बन्ध होना तथा उनका विद्यापीठकी जाँच समितिके अध्यक्ष पदको स्वीकार करना— ये दोनों ही बातें उनकी राष्ट्रीय शिक्षाके प्रति सहानुभूतिको सिद्ध करती हैं। आचार्य गिडवानी तो राष्ट्रीय शालाके ही आचार्य हैं। उन्होंने जब विद्यापीठ छोड़ा[२] था तब विद्यार्थियोंने

३१-१९
  1. पत्र यहाँ नहीं दिया जा रहा है। पत्र लेखकने १८-७-१९२६ के नवजीवन में प्रकाशित "असहयोगी पिताका पत्र" की चर्चा की थी जिससे ऐसा मालूम होता था कि आचार्य आनन्दशंकर राष्ट्रीय शिक्षाके विरुद्ध हैं।
  2. १९२६ के शुरूमें।