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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

राष्ट्रीय शालाके ऊपर लगाना दान देनेवालेके प्रति द्रोह है और चूंकि इन नाम मात्रकी राष्ट्रीय शालाओंका उदाहरण सामने रखकर शुद्ध राष्ट्रीय शालाओंको आंका जाता है जिससे राष्ट्रीय शालाओंको हानि पहुँचती है। इनके लिए पैसा इकट्ठा करनेवाले लोगोंकी साख भी कम हो जाती है और राष्ट्रीय शालाओंके नामपर मिलनेवाला पैसा नहीं मिल पाता। ऐसे अनिष्ट परिणाम आनेकी अपेक्षा तो यही अच्छा है कि शुद्ध राष्ट्रीय शालाओंकी संख्या चाहे जितनी कम क्यों न हो जाये, हम उन्हींका संचालन अच्छी तरहसे करें और उनपर पूरा-पूरा ध्यान दें। यही शोभनीय होगा और इसीमें सत्य तथा व्यावहारिक बुद्धि भी है। जैसे-तैसे रेतको इकट्ठा करें तो जिस तरह इससे ईंटोंका काम नहीं चलता और केवल उस ढेरको बढ़ाते रहनेसे बोझ तथा नुकसानमें ही वृद्धि होती है इसी प्रकार नाम मात्रके राष्ट्रीय स्कूलोंकी संख्या केवल भार-रूप और हानि-रूप ही होगी। राष्ट्रीयताकी लहर आनेपर एक सच्ची राष्ट्रीयशालासे अनेक राष्ट्रीय शालाओंका निर्माण सहज और सम्भव है। किन्तु नाम मात्रकी अनेक राष्ट्रीय शालाओंमें से कोई भी सार निकाल पाना आकाश-कुसुम जैसा ही है। इतना ही नहीं, ऐसे शुभ समयकी दृष्टिसे हमें पहले तो नाम मात्रकी राष्ट्रीय शालाओंको नष्ट करनेका प्रयास ही करना पड़ेगा।

इसलिए जहाँ-कहीं अभिभावकों अथवा शिक्षकोंका विरोध हो, वहाँ राष्ट्रीयशाला बन्द ही कर देनी चाहिए। जहाँ अभिभावकोंमें राष्ट्रीय भावना हो और वे अपनी इस भावनाका प्रमाण उचित रूपमें राष्ट्रीय शालाओंके संचालनके लिए चन्दा देकर सिद्ध करते हों और जहाँ शिक्षक-वर्ग राष्ट्रीय भावनासे ओतप्रोत होकर जी-तोड़ प्रयत्न करता हो, वहाँ मैं समझ सकता हूँ कि विद्यार्थियोंके शिथिल होनेसे भी कोई बड़ा नुकसान नहीं हो सकता। ऐसी अवस्थामें हम शाला चलाते रह सकते हैं और आशा कर सकते हैं कि हम किसी-न-किसी दिन विद्यार्थियोंपर ठीक असर डाल सकेंगे। किन्तु यह लेख लिखते हुए मेरी नजरमें ऐसा एक भी स्कूल नहीं है।

मेरा अनुभव तो यही है कि जहाँ राष्ट्रीय तत्त्वका अभाव देखने में आता है, वहाँ दोष शिक्षकोंका ही होता है। ऊपर उदाहरण दिया गया है वह एक ऐसे स्कूलका है जहाँ शिक्षक उत्साही हैं, विद्यार्थी उदासीन हैं और अभिभावक विरोधमें हैं। जहाँ अभिभावक बच्चोंके हाथकताई और बुनाई सीखने तथा खादी पहननेके विरोधमें हों और अछूत बालकोंके प्रवेशपर अपने बच्चोंको उठा लेनेकी धमकी देते हों वहाँ तो मुझे जनताके समय और शिक्षकोंके स्वाभिमानकी हानिके सिवाय और कुछ दिखाई नहीं देता। यदि हम अभिभावकोंके विरोधके बावजूद राष्ट्रीय शालाएँ चलाते रहें तो हम भी उसी प्रकारके अपराधके भागी होंगे जिस प्रकारके अपराधका आरोप ईसाई पादरियोंपर किया जाता है। हमें इस बातका कोई अधिकार नहीं है कि हम अभिभावकोंके विरोधके बावजूद उनके बच्चोंको अपने मनकी शिक्षा दें और परिवारोंमें कलह करायें। जो विद्यार्थी सोलह वर्षकी आयुसे अधिकके हो गये हैं, जो अपना भला-बुरा समझते हैं और जो कष्ट सहनेकी क्षमता रखते हैं, उनको किसीके द्वारा रक्षण देनेका प्रश्न ही नहीं उठता। वे स्वावलम्बी हो गये हैं। ऐसे विद्यार्थियोंके लिए