२९९. पत्र : रामेश्वरको
आश्रम
साबरमती
शनिवार, आषाढ़ कृष्ण १४, [७ अगस्त, १९२६][१]
आपका पत्र मिला। लड़कोंको बाईबलका अभ्यास मैं स्वेच्छासे नहीं करा रहा हूँ। उनकी ही यह इच्छा थी । सनातनधर्मी दूसरा कुछ न जानें ऐसा न होना चाहिए। दुसरे धर्मोका परिशोधन करके हम धर्मकी वृद्धि ही कर सकते हैं। उसको शोधनका डर नहीं होना चाहिए।
अदालतों में जानेसे जबतक संभवित हो आप बचते रहें। चर्खा न हो तो तकलीसे काम लीजिये।
आपका,
मोहनदास
मूल पत्र (जी० एन० १६५) की फोटो-नकलसे।
३००. बैल बनाम मोटर
काकासाहब लिखते हैं :[२]
काकासाहबके विचार मनन करने योग्य हैं, खास करके आजकल सच्ची गोरक्षाके उपाय बतानेवाले जो विचार लगभग हर सप्ताह 'नवजीवन' में प्रकाशित किये जाते हैं उन्हें देखते हुए। जिस तरह हम दूध पीना बन्द कर दें तो लाख प्रयत्न करने पर भी जनता गायकी रक्षाका प्रश्न हल नहीं कर सकती, उसी तरह अगर हम गायके वंशजोंका खेती आदिमें उपयोग करना बन्द कर दें तो उनकी रक्षा भी अशक्य हो जायेगी। जिससे निरन्तर आर्थिक हानि होती है, उस वस्तुको इस जगत्में कोई भी मनुष्य आजतक कायम नहीं रख सका है। इसीलिए मैंने बहुत बार कहा है कि जहाँ धर्म और अर्थ साथ नहीं चल सकते, वहाँ या तो धर्म झूठा है या अर्थ निरा स्वार्थ है; उससे सार्वजनिक हित नहीं होता । शुद्ध धर्ममें सदा शुद्ध अर्थ निहित रहता है। अपूर्ण मनुष्यके लिए धर्मकी परीक्षाकी यह एक सुन्दर कसौटी है। गायें-भैंसे बड़े
शहरोंमें सार्वजनिक हितकी दृष्टिसे भारस्वरूप हो गई हैं, इसीलिए उनकी हत्या बढ़ती