२९३. पत्र : नानाभाई भट्टको
आश्रम
साबरमती
शुक्रवार, आषाढ़ वदी १३ [ ६ अगस्त, १९२६ ][१]
आज कोई सोमवार तो है नहीं कि मैं आपको अपने ही हाथका लिखा पत्र भेज सकूँ। पढ़नेसे जो समय बचे उसे मेरे खाते में जमा रखें। मैंने जो भेद बताया था[२] वह आपके ही शब्दोंमें बताया था। यदि वह भेद हो तो भी आप मेरा काम बिगाड़ देंगे, ऐसा मेरे मनमें भय नहीं है; क्योंकि विद्यापीठका कार्य कोई मेरे अकेलेका ही नहीं है। वह कार्य जितना मेरा है उतना ही आप सबका भी है। हम सब लोगोंके कार्यका लेखा-जोखा करनेके बाद जो शेष रह जायेगा वह भगवानका। इस बार आपने जो नया हल सुझाया है मुझे उसमें कोई भेद नहीं दिखता। शिक्षक, शिक्षकके रूपमें ही चरखेका प्रचार कर सकता है, यह बात मुझे सर्वथा मान्य है। आप खादीकी प्रवृत्तिको शिक्षाका आधार मानें। इसका अन्त तो तभी होता है जब मुक्ति मिल जाती है।
नरहरि सूरत जायें[३], यह सुझाव देनेवाला में था और उस समय स्वयं नरहरिने ही यह कहा था कि उनके वहाँ रहनेकी अवधि निश्चित कर दी जाये। अब यदि वे सूरतमें स्थायी रूपसे बस जाना और स्कूलके काममें तन-मनसे लग जाना चाहें तो ऐसा वे मेरे कहनेसे नहीं; अपितु अपनी इच्छासे ही करें। मैं उसका तनिक भी विरोध न करूंगा। मेरा विरोध तो, उनमें जो व्यग्रता है, उससे है। यदि नरहरि किसी कामको हाथमें लेते हैं और यह देखते हैं कि उसका परिणाम उपयुक्त नहीं निकल रहा है तो वे ससे थोड़े ही समयमें ऊब जाते हैं। उनकी इस ऊबके कारण उनसे सरभौण- का काम[४] ले नहीं लेना चाहिए। इन सब बातोंपर विचार करनेके बाद नरहरिको जैसा उचित लगे वैसा अवश्य करें। वे सूरतके विद्यालयको न सँभालेंगे, मैंने यह बात तो स्वप्नमें भी नहीं सोची थी। मेरी इच्छा तो यही है कि वे अपने धर्मसे च्युत न हों।
गुजराती प्रति (एस० एन० १२२१२) की फोटो-नकलसे।