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२८५. पत्र : धीरेन्द्रचन्द्र लाहिड़ीको

आश्रम
साबरमती
५ अगस्त, १९२६

प्रिय मित्र,

आपका पत्र मिला। आपके प्रश्नोंके उत्तर ये हैं :
१. जीवनका उद्देश्य आत्मशुद्धि होना चाहिए।
२. जीवनकी रिक्तता जीवनको निःस्वार्थ सेवासे भर देनेपर दूर हो जाती है।
३. हर गलत कामका दण्ड होना ही हए। जब मनुष्य पापहीनताकी स्थिति प्राप्त कर लेता है, तब उसे दण्डका बोध नहीं रह जाता क्योंकि फिर वह जिसके साथ अन्याय करता है, वह व्यक्ति भी उसके मनमें शेष नहीं रहता। आपने जिस लड़कीके प्रति अपराध किया है उसके विषयमें आपको सोचना बन्द कर देना है, और ऐसा आप तभी कर पायेंगे जब आप इस अपराधकी गम्भीरताको समझेंगे और ऐसा मानेंगे कि वह लड़की आपकी सगी बहनकी तरह है।
४. जो भी हो, जबतक आप उस लड़कीको बिलकुल भूल नहीं जाते तबतक आपको शादीकी बात सोचनी ही नहीं चाहिए।
५. स्वार्थ भावनाको तो बिना किसी प्रतिदानकी आशा किये निष्ठापूर्वक दूसरोंकी सेवाके जरिये ही दूर किया जा सकता है।
६. पाशविक आवेगोंको इस अनुभूतिके बलपर वशमें रखा जा सकता है कि हम पशु नहीं, मानव हैं। हम मनुष्योंका तो ध्येय ही अपनी वासनाओंपर नियन्त्रण रखना है, क्योंकि हम शुद्ध पशु जीवनसे ऊपर उठ चुके हैं।
७. एकाग्रता जीवनको किसी एक पवित्र सेवाकार्य में लगानेसे आती है।
८. अगर मनुष्य यह समझ ले कि दुःख और दुर्भाग्य तो समस्त मर्त्य प्राणियोंके साथ लगे हुए ही रहते हैं तो वह इन्हें सहन करना सीख सकता है। आश्चर्य तो यही है कि हमारे दुःख और दुर्भाग्य दूसरोंसे कुछ कम ही हैं।

हृदयसे आपका,

श्रीयुत धीरेन्द्रचन्द्र लाहिड़ी

द्वारा श्री शैलेन्द्रनाथ लाहिड़ी
प्रेसिडेंसी जेल
अलीपुर डाकघर

(२४ परगना)

अंग्रेजी प्रति (एस० एन० १०९७५) की फोटो-नकलसे।