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२७४. पत्र : मोहनलाल पण्ड्याको

आश्रम
साबरमती
मंगलवार, आषाढ़ बदी १०, ३ अगस्त, १९२६

भाईश्री ५ मोहनलाल,

तुम्हारे दोनों पत्र मिले। राष्ट्रीय चेतनाका कितना विकास हुआ है इसका हमारे पास और कोई मापदण्ड नहीं है। कितनी खादी तैयार की, कितने अन्त्यजोंको पढ़ाया और कितने हिन्दू मुसलमान शुद्ध हृदयसे रह रहे हैं, इन प्रश्नोंके उत्तरमें विभिन्न प्रान्तोंसे जो आँकड़े मिले, वे ही मापदण्ड हैं। यदि हम इन तीनों कार्योंको सच्चे हृदयसे कर रहे हैं तो इस समय चाहे अधिकारियोंके मदमें वृद्धि हो गई हो और चाहे लोगोंका उत्साह ठण्डा जान पड़ता हो, जो लोग राष्ट्रके उपर्युक्त कार्योंका दृढ़तासे प्रचार कर रहे हैं उन्हें यह दृढ़ विश्वास रखना चाहिए कि देशकी हालत ठीक है। इसके बाद नगरपालिकाओं, स्थानीय निकायों, सार्वजनिक सभाओं और परिषदों आदिका क्षेत्र तो है ही। जो उनमें काम करना ठीक समझें, वे उन्हें खुशीसे चलाते रहें। इनके कारण उनसे द्वेषभाव क्यों रखा जाये, क्योंकि जिन्हें वह काम करना हो उन्हें उसे करनेसे कौन रोक सकता है? उनपर क्रोध किसलिए किया जाये? सभी अपनी-अपनी बुद्धिके अनुसार काम करते हैं। यदि हम इस तरह शान्तिसे अपना काम करते जायेंगे तो अन्ततः वातावरण शुद्ध हो जायेगा। अभी तो स्वराज्यवादियोंका घोड़ा कभी-कभी निरंकुश होकर उछल-कूद करता है और हम उसकी टापोंसे कुचल जाते हैं। यह घोड़ा जब अपने खूंटेपर बँध जायेगा तब हमारे मन अपेक्षाकृत अधिक स्वस्थ हो जायेंगे। खादीकी प्रदर्शनियाँ तो अवश्य की जानी चाहिए। यह कार्य धीरे-धीरे होगा, हमें यह विश्वास रखना चाहिए। भाई लक्ष्मीदास[१] शुद्ध बुद्धिसे यथामति और यथाशक्ति खादीकी साधना कर रहे हैं। उसका जो परिणाम निकलना होगा वह निकलेगा। यदि हम सब समस्त गुजरात अथवा समस्त देशका विचार करनेके बजाय अपने-अपने छोटे क्षेत्रका ही विचार करें और उसे पूर्णतापर पहुँचाएँ तो अन्य क्षेत्र स्वयमेव पूर्ण हो जायें।

और अब राष्ट्रीय स्कूलोंके बारेमें। अगर तुम व्यावहारिक हो तो क्या मैं तुमसे कम व्यावहारिक हूँ? मैंने भी व्यावहारिक बात ही कही है। यदि विद्यार्थी हमपर नेतागिरी करें, माँ-बाप विद्यार्थियोंको हमारे स्कूलोंमें भेजना हमपर अहसान समझें,

उनकी फीस देनेसे स्पष्ट इनकार करें तो हम सारा खर्च भीखसे चलायें और उससे पाखण्डको उत्तेजन मिले तो क्या इस सबकी अपेक्षा यह अधिक व्यावहारिक न होगा कि हम विद्यार्थियोंकी नेतागिरीसे मुक्त हो जायें, माँ-बापका अहसान लेनेसे इनकार

  1. लक्ष्मीदास पु० आसर।