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२७३. पत्र : देवदास गांधीको

आश्रम
साबरमती
मंगलवार, आषाढ़ बदी १०, ३ अगस्त, १९२६

चि० देवदास,

तुम्हारा पत्र मिला। डा० अन्सारी जब आयें तभी ठीक। उनका भाषण मैंने अखबारोंमें पढ़ा है। यह तो आवेशमें दिया हुआ भाषण है। उनके उत्तम विचारोंके बारेमें मुझे तनिक भी शंका नहीं है; लेकिन वे अपने धन्धेके अलावा किसी अन्य कार्यमें तन्मयतासे नहीं लग सकते। यही बात हकीम साहबके बारेमें भी कही जा सकती है। उनका हृदय शुद्ध है; लेकिन वे किसी कार्यमें सब-कुछ छोड़-छाड़कर नहीं लग सकते। मौलाना अबुल कलाम आजाद सच्चे अर्थोंमें मौलाना हैं। ज्ञापन-पर मेरा कोई विश्वास नहीं है। सात सौसे हमारा कोई भी काम नहीं बन सकता। जहाँ सत्य हो प्रकट न हो सके वहाँ कोई भलाई होने की क्या आशा की जा सकती है? विधान सभाओंका काम और हिन्दू-मुस्लिम ऐक्यका काम दोनोंको एक ही मनुष्य साथ-साथ नहीं कर सकता, क्योंकि दोनों परस्पर विरोधी हैं। महाराजा नाभा अथवा उनकी रानी चरखा चलायेंगे, मैं तो ऐसी आशा नहीं करता। फिर भी वे सूत कातना चाहें तो उन्हें तकली सिखाना ज्यादा आसान और अच्छा है। यदि वे तकली चलाना छोड़ दें तो हमें बुरा नहीं लगेगा; किन्तु यदि वे चरखा चलाना छोड़ देंगे तो हमें अवश्य बुरा लगेगा। तथापि यदि तुम्हारे विचार मुझसे भिन्न हों तो मुझे लिखना जिससे में चरखा भेज दूं।

वर्तमान राजनीतिक वातावरणको देखकर अत्यन्त अरुचि होती है। मीठू बहनने[१] मुझे स्वयं पत्र लिखकर अपने लिए खादी मँगाई थी। इतनी खादी तो तुम सहज ही बेच सकोगे। खादीकी जो कीमतें वे देंगी उनके बारेमें मुझे मालूम ही है।

तुम्हारे आने के बारेमें तो मैं तुम्हें लिख ही चुका हूँ। मेरी तो यही राय है। लेकिन यदि तुम अभी वहाँ कुछ दिन और रहना चाहो तो में उसका विरोध नहीं करूंगा। यहाँ कोई काम नहीं है, ऐसा सोचना तो भ्रमपूर्ण है। यहाँ काम तो इतना ज्यादा है कि कार्यकर्ताओंको फुर्सत ही नहीं मिलती। फिर भी यदि तुम्हें अपने स्वास्थ्यकी दृष्टिसे वहाँ कुछ अधिक रहना उचित लगे तो अवश्य रहना। मुझे विट्ठलभाईका पत्र मिला है। उसमें उन्होंने लिखा है कि यदि तुम वहाँ न जाओगे तो वे सन्तोष कर लेंगे।

गुजराती प्रति (एस० एन० १२२३३) की फोटो-नकलसे।

  1. मीठूबहन पेंटिट