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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

जितनी कठिनाई संन्यासी वर्गको समझानेमें रही है लगभग उतनी ही धनिक वर्गको समझानेमें भी रही है। यदि धनिक लोग अपना धर्म समझ जायें, आलस्यको उत्तेजना न दें और उन भिखारियोंको अन्न न देकर उद्यम ही दें तो चरखेका साम्राज्य आज ही स्थापित हो जाये। परन्तु धनिक लोगोंसे ऐसी आशा क्योंकर रखी जा सकती है? धनिक लोग औरोंके मुकाबलेमें साधारणतया अधिक आलसी होते हैं और आलस्यको उत्तेजना तो देते ही हैं। उनसे जाने या अनजाने आलसी भिक्षुओंको उत्तेजना मिल जाती है। इसलिए यद्यपि लेखकने सुझाव तो अच्छा ही दिया है, परन्तु उसने इस बातपर विचार नहीं किया कि इसपर अमल करना बहुत कठिन है। कहनेका आशय यह नहीं है कि हम इस दिशामें प्रयत्न न करें, बल्कि हमें प्रयत्न तो करते ही रहना चाहिए। यदि कोई भी धनवान इसे समझ ले और आलसियोंको दान न दे तथा यदि वे सब साधु जो अपंग नहीं हैं, उद्यमके बिना भोजन न करनेका संकल्प कर लें तो इससे भारतको लाभ हुए बिना नहीं रहेगा। इसलिए जहाँ-जहाँ इस प्रकारका प्रयत्न किया जा सकता है वहाँ इसे करना ही चाहिए। हाँ, कठिनाइयाँ हमेशा ध्यानमें रखनी चाहिए, जिससे तात्कालिक फल न मिलनेपर निराशा उत्पन्न न होने पाये और हम अपने साधनको निरर्थक न समझ लें।

[ गुजरातीसे ]
नवजीवन, १-८-१९२६

२६४. पत्र: मु० रा० जयकरको

आश्रम
साबरमती
१९ अगस्त, १९२६

प्रिय श्री जयकर,

आपके पत्रने[१] राहत दी। मैं नहीं जानता कि अनुगामियोंकी संख्याको देखते हुए मेरे लिए आपकी अपेक्षा मोतीलालजीके अधिक महत्त्वपूर्ण होनेकी बात करना, किसी भी अर्थमें ठीक होगा या नहीं। लेकिन अगर यह किसी भी अर्थमें सच है तो केवल इतना ही कहा जा सकता है कि यह मेरे मनकी कोई भावना है जिसपर में

  1. गांधीजीके १० जुलाई के पत्रकी प्राप्ति स्वीकार करते और बी० एफ० भरुचाकी एक उक्तिका उल्लेख करते हुए जयकरने २७ जुलाईके अपने पत्र में लिखा “मैंने उनसे कभी यह बात नहीं कही कि आप मेरे प्रति उदासीन हो गये हैं। हम जब कभी मिले हैं, तब मैंने किसी प्रकारकी उदासीनताका नहीं, बल्कि हमेशा भरपूर स्नेहका ही अनुभव किया है। हाँ, मैं यह जरूर महसूस करता हूँ कि, चूँकि दास या मोतीलालकी तरह मेरे बहुतसे राजनीतिक अनुगामी नहीं हैं, इसलिए हम दोनोंके बीच जो व्यक्तिगत सौहार्द सदासे रहा है, उसके बावजूद उस अर्थमें आपके लिए मेरा उतना महत्त्व नहीं है। लेकिन क्या वह केवल एक सच्ची बात कहना ही नहीं है?" (एस० एन० ११३२३)