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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

आजतक न ढूँढ़े मिला है और न मिलनेवाला ही है। यह बात वास्तविक और उचित है। यदि ऐसा न हो तो सत्य और यम-नियमादिकी जो महत्ता है वह जाती रहेगी। सामान्य ज्ञान प्राप्त करनेके लिए अथवा लाख, दस लाख रुपया एकत्रित करने के लिए मनुष्यको भारी प्रयत्न करना पड़ता है। जब उत्तर ध्रुव-जैसे साधारण स्थानको देखनेके लिए अनेक मनुष्य अपने जान-मालको जोखिममें डालनेमें भय नहीं खाते तब राग-द्वेष रूपी महाशत्रुओंको जीतनेके लिए उपर्युक्त प्रयत्नोंकी अपेक्षा सहस्रगुना प्रयत्न करना पड़े तो उसमें आश्चर्य और क्षोभ क्यों हो? ऐसी शाश्वत विजयकी प्राप्तिका प्रयत्न करना ही सफलता है। प्रयत्न ही विजय है। यदि उत्तर ध्रुवका दर्शन न हो तो सब प्रयत्न व्यर्थ ही माना जाता है; किन्तु जबतक शरीरमें प्राण रहें तबतक राग-द्वेष इत्यादिको जीतनेमें जितना प्रयत्न किया जायेगा वह हमारी प्रगतिका ही सूचक होगा। ऐसे उद्देश्यके लिए किया गया स्वल्प प्रयत्न भी निष्फल नहीं होता— ऐसा भगवान् का वचन है।[१]

इसलिए मैं इस विद्यार्थीको तो इतना ही आश्वासन दे सकता हूँ कि उसको प्रयत्न करते हुए निराश हरगिज नहीं होना चाहिए। उसे अपनी प्रतिज्ञा नहीं छोड़नी चाहिए— बल्कि 'अशक्य' शब्दको अपने शब्द-कोषमें से निकाल देना चाहिए। प्रतिज्ञा स्मरण न रहे तो प्रायश्चित्त करना चाहिए और उसे फिर स्मृतिमें दृढ़ करना चाहिए। वह जहाँ प्रतिज्ञा भूले वहींसे फिर चले और मनमें दृढ़ विश्वास रखे कि अन्तमें जीत तो उसीकी होगी। आजतक किसी भी ज्ञानीका अनुभव यह नहीं कहता कि कभी असत्यकी विजय हुई है। वरन् सबने एकमत होकर अपना यह अनुभव पुकार- पुकारकर बताया है कि अन्तमें सत्यकी ही जय होती है। उस अनुभवका स्मरण करते हुए तथा शुभ काम करते हुए जरा भी संकोच नहीं करना चाहिए और शुभ प्रतिज्ञा करते हुए किसीको डरना भी नहीं चाहिए। पं० रामभजदत्त चौधरी इस टेककी पंजाबी कविता लिख गये हैं :

"कदि नहिं हारना भांवे साडी जान जावे"

[ गुजरातीसे ]
नवजीवन, १-८-१९२६
  1. 'स्वल्पमप्यस्थ धर्मस्थ त्रायते महतो भयात्।' गीता, २-४० ।