२५६. पत्र : सज्जादीन मिर्जाको
आश्रम
साबरमती
३१ जुलाई, १९२६
आपका पत्र और आपके द्वारा लिखी 'बालबोध' पुस्तककी प्रति मिली। धन्यवाद। मैंने आपकी पुस्तक काफी दिलचस्पीके साथ पढ़ी। बाल साहित्यके सम्बन्धमें मेरे कुछ निश्चित आग्रह हैं। मेरे विचारसे, आपकी 'बालबोध' पुस्तकमें, सिवाय इसके कि उसका कागज अच्छा है और वह मँहगी है, विशेष कुछ नहीं। भारतमें लिखी जितनी भी बालबोध पुस्तकें हैं उनमें से अधिकांश मैंने देखी हैं। वे सबकी-सब कमोबेश अच्छी हैं और आपके विचारोंकी कसौटीपर कुछ हदतक खरी भी उतरती हैं। पर वे इस मायनेमें अच्छी हैं कि वे इतनी मँहगी नहीं हैं। यह याद रखना चाहिए कि हमारा देश दुनियाका लगभग सबसे गरीब देश है। इसलिए चार-चार आनेकी बालबोध पुस्तकें तैयार करना ठीक नहीं है। मेरा अपना विचार तो यह है कि बालबोध पुस्तक जितनी छोटी हो उतनी ही बेहतर।
छोटे बच्चोंको पुस्तकोंकी सहायताकी इतनी जरूरत नहीं होती जितनी कि अच्छे अध्यापकोंकी होती है। लेकिन चूंकि हमारे पास बहुत ज्यादा प्रशिक्षित अध्यापक नहीं हैं, इसलिए बालबोधकी रचना इस तरह की जानी चाहिए कि उससे बच्चोंकी अपेक्षा अध्यापकोंको ही ज्यादा मदद मिले। इस तरह बालबोध पोथियोंकी रचनाके लिए विचारोंमें क्रान्ति लाना आवश्यक है और तब भी इस प्रकारकी बालपोथियोंकी रचना अनुभवी अध्यापकके हाथों ही हो सकती है। इसलिए वास्तवमें मेरी यह सलाह है कि आप बाल-साहित्यके इस महत्त्वपूर्ण प्रश्नका फिरसे अध्ययन करें और अगर आपमें प्रतिभा हो तो आप एक ऐसी पुस्तक लिखें जिसे हमारे देशके समान विशाल और गरीब देशके बच्चोंको पढ़ानेके तरीकोंके सम्बन्धमें सब लोग एक मौलिक देनके रूपमें स्वीकार करें। इस सम्बन्धमें यूरोपीय नमूनेपर लिखी गई मँहगी पुस्तकें ज्यादा कामकी नहीं हो सकतीं।
हृदयसे आपका,
डिविजनल इन्स्पेक्टर ऑफ स्कूल्स
अंग्रेजी प्रति (एस० एन० १०९७३) की फोटो-नकलसे।