२५५. पत्र : देवचन्द पारेखको
आश्रम
साबरमती
शुक्रवार, आषाढ़ बदी ६, ३० जुलाई, १९२६
मैं आपका अपराधी हूँ। "वणिक बन्धुओंके नाम ज्ञापन" का मसविदा आपने मुझे कुछ महीने पहले भेजा था। मैंने उसे पढ़ जाने की बात स्वीकार की थी। लेकिन एकके बाद एक काम बीचमें बाधक होते गये और में आपका वह मसविदा देख नहीं सका। आज अपने कागजोंमें मुझे यह मसविदा मिला। मैंने इसे पढ़ लिया है। मुझे इसमें परिवर्तन करने योग्य कोई बात नहीं दिखाई देती। मैं इस आन्दोलनसे पूरी तरह सहमत हूँ। मैं आपको यह सलाह तो पहले ही दे चुका हूँ कि आप सभी उपजातियोंके मुख्य लोगोंसे मिलें और उनके हस्ताक्षर प्राप्त करनेकी कोशिश करें। इसमें हम असफल हो जायें और उपजातियोंके मुट्ठी भर लोग ही सहमत हों तो भी यह कार्य करने योग्य है, इसमें मुझे तनिक भी सन्देह नहीं। जब आप इस ज्ञापनपर थोड़े बहुत लोगोंके हस्ताक्षर करा लें, तब मुझे सूचना दें। मैं प्राप्त सूचनाके आधारपर 'नवजीवन' में टिप्पणी लिखूंगा। आपके मसविदेको देरसे वापस भेजनेका जो अपराध मैंने किया है, आप उसका अनुकरण तो अवश्य ही नहीं करेंगे, क्योंकि आपके पास तो मेरी तरह ढील करनेका कोई बहाना भी नहीं है।
बापू
जेतपुर
गुजराती पत्र (एस० एन० १२२२९) की फोटो-नकलसे।