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२४७. पत्र : शम्भुशंकरको

आश्रम
साबरमती
बृहस्पतिवार, आषाढ़ बदी ५, २९ जुलाई, १९२६

भाई शम्भुशंकर,

तुम्हें इसके साथ १५० रुपयेकी हुंडी भेज रहा हूँ। इस तरह वापसी डाकसे उत्तर मँगवानेका रिवाज न रखो। जो मनुष्य सट्टा करता हो उसपर किसी भी समय पैसेका संकट आ सकता है। लेकिन जो मनुष्य नियमित धन्धा करता हो उसे संकटका ज्ञान पहलेसे ही हो जाता है। भाई जगजीवनदाससे मिले रुपयोंके ब्याजका क्या हुआ? हुंडी भावनगरकी मिल सकी तो भावनगरकी भेजूंगा, नहीं तो बम्बईकीही भेजूंगा। नकद भेजनेमें बड़ी झंझट है। खादी बेचनेके लिए तुम्हें विशेष प्रयत्न करना पड़ेगा; उसके लिए विशेष योग्यता भी होनी चाहिए। जिस बुनकरने मिलके सूतका उपयोग किया है, उसे मजूरी बिलकुल नहीं देनी चाहिए। हमारे लिए तो वह थान व्यर्थ ही गया समझो। ऐसे मामलोंमें हमें अपना सूत वापस मिल जाये, तो पर्याप्त है। यदि तुम बुनकरको जानते हो तो तुम्हें और बुनकरको, अथवा अकेले तुम्हींको, बिना क्रोध किये उपवास करना चाहिए, यही उचित है। न करो तो हानि कुछ नहीं है। उपवास सभी रोगोंकी दवा नहीं है। आत्मशुद्धिके अनेक मार्ग हैं। उपवास उनमें से एक है। बहुत कुछ शुद्धि तो विचारोंपर अधिकार प्राप्त करनेपर ही हो सकती है और अन्ततः तो वही शुद्धि वास्तविक है।

गुजराती प्रति (एस० एन० १२२२७) की माइक्रोफिल्मसे।

२४८. पत्र : जी० एन० कानिटकरको

आश्रम
साबरमती
३० जुलाई, १९२६

प्रिय कानिटकर,

आपका पत्र मिला। मैंने 'स्वावलम्बन' का छठा और सातवाँ अंक नहीं देखा। शायद यह पत्रिका नवजीवन कार्यालयके पतेपर भेजी जा रही है। मेरी समझमें पत्र-पत्रिकाएँ यहीं भेजना ज्यादा ठीक होगा । सीधे नवजीवन कार्यालय पहुँचनेवाली चीजें मुझे तभी मिलती है जब मैं विशेष रूपसे उन्हें मँगाऊँ।

मैंने ‘स्वावलम्बन 'के पतेके लिए आवरण पृष्ठ और अन्तिम पृष्ठ देखा। पता न दिखनेपर मैंने सोचा कि वह कहीं दिया ही नहीं गया है। अब उसे विज्ञापनके