२४५. पत्र : प्रभाशंकर अभयचन्दको
आश्रम
साबरमती
गुरुवार, आषाढ़ बदी ५, २९ जुलाई, १९२६
तुम्हारा पत्र मिला। तुमने दो बार पिताके अपराधको सहन किया; किन्तु यह सहन करना नहीं है। सहन करनेका मतलब अपराधको दरगुजर करना नहीं होता। यदि तुमने पहले ही अपराधको सहन न किया होता तो उसका जो दुष्परिणाम निकला वह न निकलता। सहन न करनेके दो मार्ग हैं, एक हिंसक और दूसरा अहिंसक। तुमने तीसरी बारके अपराधपर जो असहयोगका मार्ग अपनाया है, मुझे वही तो वास्तविक लगता है। लोकनिन्दासे डरनेका कोई कारण नहीं है। लेकिन पिताको त्यागनेका कारण छिपाना कदाचित् उचित न होगा; उनके अपराधकी डोंडी पीटनेकी आवश्यकता नहीं है, परन्तु लोकलज्जाके कारण उसे छिपाना भी ठीक नहीं। धार्मिक व्यवहारमें इस तरहकी लज्जाको कोई स्थान नहीं है। तुमने नाम भेजा, यह ठीक ही किया; नहीं तो मैं तुम्हें उत्तर न दे पाता। मैंने तुम्हारा पत्र फाड़ दिया है।
क्लार्क, गोंडल रेलवे
रनिंग रोड
गुजराती प्रति (एस० एन० १२२२५) की माइक्रोफिल्मसे।
२४६. पत्र : पूँजाभाई शाहको
आश्रम
साबरमती
बृहस्पतिवार, २९ जुलाई, १९२६
मैं इसके साथ दो पत्र भेजता हूँ। मुझे इस सम्बन्धमें कुछ सूझ नहीं पड़ता। तुम्हारी तबीयत अच्छी हो तो फुरसत मिलनेपर आ जाना। न आ सकोगे और मुझे लिखोगे तो मैं छगनलालको भेज दूंगा; जरूरी हुआ तो स्वयं आ जाऊँगा।
गुजराती प्रति (एस० एन० १२२२६) की माइक्रोफिल्मसे।