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२३९. पत्र : एच० कैलेनबैकको

आश्रम
साबरमती
२९ जुलाई, १९२६

यह सही बात है कि आप मुझे एकाध-बार ही पत्र लिखते हैं, और मेरा भी यही हाल है। मगर चूंकि मैं किसी-न-किसीसे बराबर यह सुनता रहता हूँ कि आप यहाँ आनेवाले हैं, इसलिए मैं लगभग हरएक डाक गाड़ीसे आपके सशरीर यहाँ उपस्थित होनेकी आशा लगाये हूँ। जो गरजते हैं वे बरसते नहीं हैं— मैं चाहता हूँ कि आप इस कहावतको गलत सिद्ध कर दें।

लेकिन मैं यह पत्र आपको इसलिए लिख रहा हूँ कि आप टिओ श्राइनरकी उस पुस्तककी दो प्रतियाँ मेरे लिये कहींसे हासिल कर लें जिसमें उन्होंने ऑलिव श्राइनरके बारेमें लिखा है। एक अंग्रेज मित्रने[१] इस खयालसे कि मैं तो इस कृतिके बारेमें सब कुछ जानता ही होऊँगा, मुझसे पूछा है कि क्या मैं इसके विषयमें जानता हूँ और क्या मैं यह कृति उन्हें दिला सकता हूँ। मुझे यह कहते हुए बड़ी शर्म महसूस हुई कि मैं इसके बारेमें कुछ नहीं जानता, लेकिन मैंने उन्हें इस विषयपर पूछताछ करनेका वचन दे दिया और स्वभावतः मुझे आपका स्मरण हो आया।

मैं अपने काममें लगा हूँ। इस समय मेरा सारा काम आश्रममें और आश्रमका ही है। प्रतिदिन तीन कक्षाओंको 'भगवद्गीता' और 'रामायण' पढ़ाता हूँ। इस कार्यमें मुझे बड़ा आनन्द आता है। चरखा चलानेका काम धार्मिक नियमितताके साथ कर रहा हूँ। इस सबसे जो समय बचता है, उसे दोनों अखबारोंके सम्पादन और पत्र-व्यवहारमें लगाता हूँ। अब हमने आश्रमके प्रबन्धके लिए एक परिषद् बना दी है। इसमें बहुत समय निकल जाता है।

हृदयसे आपका,

कैलेनबैक
डर्बन

अंग्रेजी प्रति (एस० एन० १०७८९) की फोटो-नकलसे

  1. देखिए "पत्र: डब्ल्यू० एच० वाइजरक", २८-७-१९२६ ।