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२३७. टिप्पणियाँ

"कुछ बंगाली महिलाओं" से

यदि आप लोगोंने मुझे अपने नाम और पते लिख भेजे होते तो आपको तत्काल पूरा उत्तर दे देता। आप मुझसे 'यंग इंडिया' के पृष्ठोंमें एक अत्यन्त नाजुक मामलेकी चर्चा करनेको कहती हैं। मुझे खेद है कि मैं ऐसा नहीं कर सकता। यदि जैसा आप कहती हैं तथ्य वे ही हों तो इसमें सन्देह नहीं है कि कहीं कोई बहुत बड़ी बुनियादी खराबी है। यह स्पष्ट है कि आपने जो-कुछ लिखा है सुन-सुनाकर लिखा है। मुझे तथ्य भेजे जाने चाहिए थे और अपना पता भी, जिससे मैं आपको पत्र लिख सकता और आपसे अतिरिक्त जानकारी मँगवा सकता। अब भी आप लोग ऐसा कर सकती हैं।

डटकर कताई

एक सज्जन लिखते हैं कि पचोरा (महाराष्ट्र) में एक व्यापारीकी स्त्रीने नौ महीनोंमें ३४ पौंड सूत काता और सो भी घरका सब कामकाज करनेके बाद ५ घंटे रोज कातकर। कता हुआ सूत ७, ८ अंकका है। कपासकी धुनाई पतिने कर दी थी। उन लोगोंका कपड़ेका सालाना खर्च १५० रुपये था, लेकिन जबसे घरमें चरखा चलने लगा, तबसे यह केवल ५० रुपये रह गया है। इसमें जरूरतसे ज्यादा कपड़ोंसे पिंड छुड़ा लेनेका हाथ भी प्रत्यक्ष ही है।

कातनेका कारण

एक वकील मित्र, जिनको कि मैंने उनके सूतके एकसारपनपर बधाई दी थी—यद्यपि वे नये कतैये हैं।— लिखते हैं :

मैं आपको इस भ्रममें नहीं डालना चाहता हूँ कि मैंने देशभक्ति या परोपकारकी किसी भावनासे प्रेरित होकर चरखा चलाना शुरू किया है। सन् १९२५ में··· के··· को बराबर कातते हुए देखकर मैंने, जैसा कि हम वकील आमतौर-पर कहा करते हैं, एक बिलकुल ही लौकिक लाभको दृष्टिसे कातना शुरू किया था। मुझे दुःख है कि मैं उस उद्देश्यकी पूर्तिमें असफल रहा। और मेरी यह दृढ़ धारणा हो गई कि मैं चाहे जितने अर्सेतक क्यों न कातता रहूँ, मेरा वह उद्देश्य कभी पूरा नहीं हो सकता। लेकिन जिस दिनसे मैंने कातना शुरू किया उस दिनसे में उसे पसन्द करने लगा। मैंने देखा कि कातना तो चिन्तित चित्तके लिए शान्तिदायक बूटी ही है। मैंने इसलिए उसे जारी रखा तथा जारी रखूंगा भी। चूंकि मैं कलके पुर्जेकी तरह उद्देश्यहीन कताई पसन्द नहीं करता, इसलिए में अपने उत्पादनको बेहतर बनाने की दिशामें आपसे मार्गदर्शन