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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

जहाँ संयममें शान्ति है वहाँ असंयममें अशान्ति-रूप महाशत्रुका निवास है। कामेच्छाएँ तो सदा ही कष्टदायी हो सकती हैं, किन्तु तरुणावस्थामें यह महाव्याधि हमारी बुद्धि और हमारे सन्तुलनको बिलकुल ही बिगाड़ दे सकती है। जो नवयुवक किसी स्त्रीसे, यह समझकर कि वह कोई क्षणिक सम्बन्ध करने जा रहा है, सम्बन्ध स्थापित करता है वह नहीं जानता कि सचमुच वह अपने नैतिक, मानसिक और शारीरिक अस्तित्वके साथ खेल रहा है। वह नहीं जानता कि आगे चलकर घर और घरके बाहर सारे जीवन-भर यह क्षणिक व्यवहार उसपर हावी हो जायेगा; वह नहीं जानता कि इसीकी स्मृति रात-दिन उसके मनमें घूमती रहेगी और उसे अपनी इन्द्रियोंके सामने किसी बुरी तरह घुटने टेकने पड़ेंगे। सभी जानते हैं कि कितने ही होनहार युवक जिनसे आगे बहुत-कुछ आशा की जाती थी एक बारकी चूकके कारण गिरते ही चले गये और उनका जीवन पूरी तरह चौपट हो गया।

कविकी इन प्रसिद्ध पंक्तियोंमें किसी दार्शनिकके विचार हो प्रतिध्वनित हो रहे हैं :

मनुष्यका जीवन एक गहरा पात्र है
यदि उसमें थोड़ी भी अशुचिता रह जाये
तो उसमें समाहित पवित्रसे पवित्र जल भी
अशुचि हो जायेगा

इंग्लैंडके प्रसिद्ध शरीर-शास्त्री महाशय जॉन जी० एम० केंड्रिक, जो ग्लासगो विश्वविद्यालयमें शरीर-शास्त्र के आचार्य हैं, भी तो यही कहते हैं कि कामेच्छा की सन्तुष्टि केवल नैतिक दोष ही नहीं है, वह शरीरपर भी भयानक आघात करता है। यदि एक बार भी ऐसी इच्छाके आगे झुक गये तो वह तुमपर निरंकुश होकर अत्याचार करने लगेगी। एक बारका अपराधी मन हर बार उसके हुक्मके आगे झुक जायेगा और वह इच्छा हर बार सबलतर बनती चली जायेगी। जितनी बार व्यक्ति इस निरंकुश आज्ञाके आगे झुकेगा, अभ्यासकी श्रृंखला उसे उतना ही जकड़ती चली जायेगी।

कई लोग इस श्रृंखलाको तोड़ने की शक्ति ही खो बैठते हैं और फिर परिणाम होता है उनका शारीरिक और मानसिक विनाश। वे कुटेवके वशमें होकर रह जाते हैं और यह कुटेव कुविचारके बजाय अविचारसे उद्भूत होती है। इसलिए सबसे अच्छी बात तो यही है कि मनुष्य संयमका पालन करे और अपने समूचे अस्तित्वको अनुशासित रखे।

इसके बाद श्री ब्यूरो डॉ० फ्रेंकका यह वचन उद्धृत करते हैं:

हम कामेच्छाकी हदतक यह दावा करते हैं कि वह पूरी तरहसे बुद्धि और विवेकके द्वारा परिचालित होती है। इस इच्छाको कोई आवश्यक क्रिया