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शास्त्राज्ञा बनाम बुद्धि

विचारशक्तिपर अधिक जोर डालना कहाँतक वांछनीय है? महान् शिक्षाशास्त्री रूसोने कहा था कि बचपन बुद्धिकी सुषुप्तावस्था है। इसलिए वे बाल्यकालमें अच्छी आदतें सिखा देने-भरके पक्षमें थे। और निस्सन्देह, लड़कोंको किसी महात्माके हुक्मके मुताबिक काम करना सिखाना— और फिर खास तौरपर तब, जबकि उस महात्माके उपदेशमें शारीरिक श्रमके लिए स्थान हो, एक अच्छी टेव डलवाना ही है। जब बच्चे बड़े होंगे, तब वे कातनके पक्षमें तर्क भी ढूंढ़ निकालेंगे। लेकिन तबतक के लिए क्या उनमें 'अन्ध वीरोपासना' का भाव (जैसा कि आप उसे कहना चाहते हैं) जाग्रत करना ठीक न होगा? क्या हम लोगोंने आजकल बुद्धिको एक खिलवाड़-सा नहीं बना रखा है? सड़ी-सड़ी-सी बातोंके लिए हम लम्बी-चौड़ी दलील ढूंढ़नेमें माथापच्ची करते हैं और तब भी सन्तुष्ट नहीं होते।बुद्धिका बेशक एक स्थान है, परन्तु जो स्थान आजकल हम लोगोंने उसे दे रखा है, उससे कहीं नीचा।

जबतक कि किसी व्यक्तिको पक्के तौरपर वह सब याद न हो कि अमुक सम्बन्धमें पहले वह क्या कह चुका है और किस परिस्थितिमें; तबतक उसके ही विरोधमेंउसके वाक्य उद्धृत करना ठीक नहीं है। जो-जो बातें उक्त सज्जन मेरे द्वारा कही गई बतलाते हैं, वे बेशक मैंने किसी-न-किसी समय लिखी हैं— परन्तु बिलकुल दूसरी ही परिस्थितिमें। यदि कोई बात कारण सहित इतनी अच्छी तरहसे बतलाई जा सकती हो कि बच्चे भी उसे आसानीसे समझ लें, तो किसी विद्वानका नाम लेकर तदनुसार कार्य करनेको कहनेका कोई कारण नहीं है। अकसर ही यह तरीका गलत हुआ हरएक व्यक्तिकी अपनी रुचि और अरुचि होती है। किन्तु किसी 'वीर' के प्रति श्रद्धालु होकर व्यक्ति अपने विवेकको नमस्कार कर लेता है और अपने 'देवता' का अन्ध पूजक बन बैठता है। ऐसी श्रद्धाको मैं अन्ध वीरोपासना कहता हूँ। वीरोपासना एक उत्तम गुण है। किसी राष्ट्र या व्यक्तिके सामने कोई आदर्श न हो तो वह उन्नति नहीं कर सकता है। 'वीर' उसे प्रकाश देता है और उसका उत्साह बढ़ाता है उससे भावनाको कार्यरूपमें परिणत करना सम्भव बनता है; और सम्भव है कि किसी आदर्श पुरुषके अभावमें लोग अपनी कमजोरीके कारण कार्य करनेपर उद्यत ही न हों। वह हमको निराशाकी दलदलसे उबारता है; उसके कृत्योंका स्मरण हममें असीम त्याग करनेका बल भरता है। परन्तु यह कदापि न होना चाहिए कि उसके कारण हम अपना विवेक खो दें और हमारी बुद्धि पंगु बन जाये। हममें से उत्कृष्टसे-उत्कृष्ट व्यक्तियोंके कथन तथा कार्यों तकको हमें अच्छी तरह कसौटीपर कस लेना चाहिए, क्योंकि वे 'वीर' पुरुष भी आखिरकार मनुष्य हैं और नाशवान है। वह भी ठीक उसी तरह गलती कर सकते हैं जैसी हममें से अधम-से-अधम। उनकी श्रेष्ठता तो उनके निर्णय तथा काम करनेकी उनकी शक्तिमें है। इसलिए उनकी गलतीके परिणाम बड़े भयंकर होते हैं। अन्ध वीरोपासना जिसकी आदत हो, और जो बिना सोचे-समझे तथा बिना शंकातक किये अपने आदर्शकी सब बातोंको मान लेता हो वह व्यक्ति या राष्ट्र मिट्टीमें ही मिल जाता है, इसलिए वीरोपासनाके