पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 31.pdf/२५७

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२२१
अस्पृश्यता-रूपी रावण

कि इस संसारम केवल सत्यकी ही सत्ता है और सत्य परमेश्वरके तुल्य है, तो हमारे लिए इतना ही बहुत है। यह कहना कि युधिष्ठिरको भी झूठ बोलना पड़ा था; अनुपयुक्त होगा। यह कहना उसकी अपेक्षा अधिक उपयुक्त होगा कि जब वे झूठ बोले, उन्हें उसी समय, उसी क्षण, कष्ट झेलना पड़ा और उनकी प्रसिद्धि और समाज-में बड़ा स्थान दण्ड पानेके समय आड़े न आये। उसी प्रकार हमारा यह कहना भी अप्रस्तुत ही होगा कि आदि शंकराचार्यने किसी चाण्डालको दूर रहनेको कहा था। हमारा यही जान लेना यथेष्ट होगा कि जिस धर्ममें यह सिखाया जाता है कि प्राणिमात्रके साथ आत्मोपम[१]व्यवहार करो, उस धर्मको किसी तुच्छ जीवके प्रति निष्ठुर व्यवहार भी असह्य है, बिल्कुल निर्दोष मनुष्योंके एक पूरे समाजकी बात तो दूर ही रही। इसके अलावा हमें वह सब मालूम भी तो नहीं है जिससे हम यह जान सकें कि आदि शंकराचार्यने क्या किया था और क्या नहीं किया था। यहाँ चाण्डाल शब्दका किस अर्थमें व्यवहार हुआ है उसके बारेमें तो हमें और भी कम मालूम है। यह तो सभी मानते हैं कि इसके अनेक अर्थ हैं जिनमें से एक अर्थ है पापी। यदि सभी पापियोंको अछूत माना जाये तो भय है कि हम सभी अछूत बन जायेंगे और स्वयं हमारे पण्डितजी भी नहीं बच सकेंगे। अस्पृश्यताकी प्राचीनतासे कोई इनकार नहीं करता; परन्तु यदि इसे दोष मानना है तो फिर प्राचीनताके नामपर इसका समर्थन नहीं किया जा सकता।

आर्य जातिने यदि जाति-बहिष्कृत लोगोंको अछूत माना हो तो उनके लिए यह कोई शोभाकी बात नहीं है। और यदि आर्यजातिने अपने विकासके किसी कालमें कुछ लोगोंके समाजको बतौर सजाके जातिच्युत माना था तो यह कोई कारण नहीं है कि वह सजा उन लोगोंके वंशजोंपर भी लागू हो और इसका विचार भी न किया जाये कि उनके पूर्वजोंको सजा किस दोषके लिए दी गई थी।

अछूतोंमें भी अस्पृश्यताकी प्रथाका होना तो केवल यही सिद्ध करता है कि हम पापको किसी घेरेमें सीमित नहीं रख सकते; उसका जहर सर्वत्र फैल जाता है। इस प्रथाका अछूतोंमें भी पाया जाना तो एक और कारण है कि सभ्य हिन्दू समाजको इस महाव्याधिको शीघ्रसे-शीघ्र नष्ट कर देना चाहिए।

यदि अछूतोंको न छूनेका कारण है कि वे पशु-हत्या करते हैं और उन्हें माँस, लहू, हाड़ तथा मलमूत्रादिसे काम पड़ता है तो सभी डाक्टरों और परिचारिकाओं, इसीप्रकार ईसाइयों, मुसलमानों और बड़ी-बड़ी ऊँची जातिके नामधारी हिन्दुओंको भी, जो खानेके लिए या बलि देनेके लिए जानवरोंको मारते हैं, अछूत माना जाना चाहिए। इस दलीलसे कि चूंकि कसाईखानों, ताड़ीकी दूकानों और वेश्यालयोंको अलग रखा जाता है इसीलिए अछूतोंको भी अलग रखना चाहिए, घोर द्वेषकी गन्ध आती है। कसाईखानों और शराबकी दूकानोंको अलग रखा जाता है; रखना उचित भी

  1. आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्थति योऽर्जुन! ।
    सुखं वा यदि वा दुखं स योगी परमो मतः ।। ६-३२
    श्रीमद्भगवद्गीता।