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२२३. पत्र : सतीशचन्द्र दासगुप्तको

आश्रम
साबरमती
२८ जुलाई, १९२६

प्रिय सतीशबाबू,

साबुन बनाने के लिए उपयोगी पुस्तकोंके साथ आपका पत्र मिला।

हाँ, चार दिन पहले हेमप्रभादेवीका एक पत्र मुझे मिला था। मैं अभी अपने हिन्दी पत्रव्यवहारको निबटा नहीं पाया हूँ । क्योंकि लगभग मेरे सभी लेख बोलकर लिखवाये जाते हैं, इस कारण कभी एक चीज पिछड़ जाती है तो कभी दूसरी । उन्हें ज्वर नहीं आना चाहिए और फुन्सियाँ भी ठीक होनी चाहिए। फुन्सियोंका कारण क्या हो सकता है?

उत्कलका कार्य मन्त्रीके कार्यालयसे संचालित नहीं किया जा रहा है। नारायणदास इस सम्बन्धमें आगेके सारे पत्र-व्यवहारको देख रहे थे। आपको याद होगा इसे प्रारम्भमें मैं ही देखता था। किन्तु नारायणदास बम्बईके दो भंडारोंके स्टाककी जाँच करने बम्बई गये हुए हैं। जैसे ही वह आयेंगे, मैं उनसे इसके बारेमें और पूछताछ कर लूंगा। स्थिति चाहे जो हो, औपचारिक रूपसे आपको सूचनाकी कोई आवश्यकता नहीं, क्योंकि उत्कलकी जिम्मेवारी आपके कन्धोंसे हटानेका सवाल ही नहीं उठता।

दंगोंसे सारे बंगालकी बिक्रीपर असर पड़ा है या यह प्रभाव केवल कलकत्ते तक ही सीमित है? अवकाश मिलनेपर स्थितिके विषयमें अपने विचार मुझे लिख भेजें। इस भयंकर उपद्रवका मूल क्या है?

आपका,
बापू

श्रीयुत सतीशचन्द्र दासगुप्त
कलकत्ता

अंग्रेजी पत्र (जी० एन० १५६०) की एक फोटो-नकलसे।