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२०७. पत्र : काकूको

आश्रम
साबरमती
२५ जुलाई, १९२६

चि० काकू,

चि० हरिलाल आखिर यहाँ पहुँच गया है। तुम्हारा तार मुझे मिला था। मैंने सोचा था कि उसके आनेकी खबर मुझे दी जायेगी। इसीलिए मैंने मंगलवारको किसीको स्टेशन नहीं भेजा। हरिलाल अचानक ही आ गया। बुआजीके चिन्तातुर पत्र आते रहते हैं। उन्हें तुमपर विश्वास नहीं। वे चाहती हैं कि कुछ निश्चित व्यवस्था हो जाये। इसलिए चाहो तो भाड़ेके जितने पैसे मिलें उतने पैसे ब्याजपर उठा दो और वह ब्याज उन्हें मिले ऐसी व्यवस्था कर दो। इससे तुम सब भाइयोंका भला होगा और बुआजी निश्चिन्त रहेंगी। यदि ऐसा न हो तो उनके नामपर कोई भी मकान लम्बी अवधिके लिए किरायेपर ले लो और उन्हें वहाँ रखो। चाहे जो करो, लेकिन बुआजीको निश्चिन्त करो, ऐसी मेरी इच्छा है। तुम यहाँ आये और भाई जीवनलालके पास रहे, यह बात तो मुझे हरिलालसे मालूम हुई।

गुजराती प्रति (एस० एन० १२२१५) की फोटो-नकलसे।

२०८. पत्र : बलवन्तराय भ० मनियारको

आश्रम
साबरमती
आषाढ़ सुदी १५, २५ जुलाई, १९२६

भाईश्री ५ बलवन्तराय,

आपका पत्र मिला।

अब मैं आपकी स्थितिको ज्यादा अच्छी तरह समझ गया हूँ। पहले तो आपको अपनी स्त्री और अपने भाईसे सारी बातें स्पष्ट कर लेनी चाहिए। लेकिन इससे पहले आपको खुद अपनी आँखोंसे आश्रम देख लेना चाहिए। आश्रम भंगियोंको रखा जा सकता है। आजकल दो अन्त्यज बालक रहते हैं और सब एक ही पंक्तिमें बैठकर खाते हैं। वे रसोईमें प्रवेश कर सकते हैं और खाना पकाने में भाग ले सकते हैं। पाखाना सभी हाथसे साफ करते हैं। तात्पर्य यह है कि कोई यह नहीं कह सकता कि हम पाखाना साफ नहीं करेंगे। सभीको मुख्य रूपसे अपना समय शरीर-श्रममें लगाना पड़ता है। यह सब कदाचित् आपको मान्य हो; लेकिन आपकी स्त्री और आपके भाईको मान्य होगा या नहीं, यह विचार लेना चाहिए। यह मान्य हो और