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२०२. पत्र : गोपालराव कुलकर्णीको

आश्रम
साबरमती
शनिवार, आषाढ़ सुदी १४, २४ जुलाई, १९२६

भाईश्री ५ गोपालराव,

आपका पत्र बहुत दिनों बाद मिला। अच्छा लगा। आपने पैसा बचाने और उसका जो उपयोग करनेका निश्चय किया है वह आपको शोभा देता है। आहार भी ठीक है। उसमें कोई फेरफार नहीं सूझता। इस समय खादीके बारेमें जितना जोर दिया जा रहा है उससे अधिक नहीं दिया जाना चाहिए; आपका यह विचार उचित है। आप विद्यार्थियोंसे कहें, मैं दक्षिणामूर्तिके विद्यार्थियोंसे ऐसी आशा रखता हूँ कि वे सब पूरी तरहसे खादी पहनकर अन्य स्कूलोंके सम्मुख आदर्श उपस्थित करेंगे। जो लापरवाहीके कारण अपने भागका सूत न कात सके उसे चाहिए कि वह बादमें दुगना कातकर उसका प्रायश्चित्त करे। जो ऐसा न करे उसे मिठाससे समझाया जाना चाहिए। इससे ज्यादा कुछ करनेकी आवश्यकता हो सकती है, ऐसा मुझे नहीं लगता। आपकी यात्रा करनेकी इच्छा होती है, तो उसे रोकनेकी जरूरत नहीं है; लेकिन खर्च करके यात्रा करनेकी कोई आवश्यकता नहीं। रेलगाड़ीसे यात्रा करनेवाला मनुष्य पैदल यात्रीसे ज्यादा नहीं देखता; बल्कि कम ही देखता है। मेरी यात्राके बारेमें आपने कहा है; उसमें तो पैसा खर्च करनेकी तनिक भी आवश्यकता नहीं। सुरेन्द्रने एक वर्ष पैदल यात्रा की, यह तो आप जानते हैं न? और वह ठेठ उत्तर-काशीतक हो आया । इससे मैं यह नहीं कहना चाहता कि आपको रेलकी सवारी करनी ही नहीं है। वह भी करना । मुझे तो लगता है कि जिन्हें खादीका आग्रह है उन्हें नाटकमें अभिनयके निमित्त मुफ्त मिलनेपर भी विलायती कपड़े नहीं पहनने चाहिए, क्योंकि उन्हें पहननेसे विलायती कपड़ोंका महत्व बढ़ता है। लोगोंकी यह धारणा है कि नाटकमें अभिनय एक ऐसा कार्य है जिसमें विदेशी वस्त्र पहनने ही पड़ते हैं। नाटकोंका अभिनय एक ऐसा प्रसंग है जिसमें आनेवाले लोग विलासी होते हैं। उन्हें अनेक बार खादीकी कोई जानकारी नहीं होती। नाटकमें विलायती कपड़ों-का इस्तेमाल कर हम ऐसे लोगोंमें खादी-प्रेम जगानेका अवसर ही खो बैठते हैं। जबतक वहाँ रहना अनुकूल लगे तबतक आप वहीं रहें। आपने मुझे पत्र लिखा सो ठीक ही किया।

श्री गो० कुलकर्णी
दक्षिणामूर्ति, भावनगर

गुजराती प्रति (एस० एन० १२२१३) की फोटो-नकलसे।