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पत्र : नॉर्मन लीजको

परन्तु साम्प्रदायिक उपद्रव रास्ता रोके खड़े हैं। आपके ढंगसे सोचते हुए मैं आगे फिर इस प्रकार तर्क करता— “ये भारतीय— हिन्दू और मुसलमान— कुत्ते बिल्लियोंकी तरह आपसमें तो लड़-झगड़ रहे हैं, लेकिन मेरे देशके साथ, जो अतीतमें उनके साथ अन्याय कर चुका है और अब भी निरन्तर कर रहा है, लड़नेके लिए इनके पास न तो साधन हैं और न हिम्मत ही। मैं इस अन्यायमें अब और भागीदार नहीं बनना चाहता। वे तो लड़ेंगे। यदि मेरा देश इसे प्रोत्साहन न दे और जान-बूझकर या अनजानेमें उसे और न बढ़ाये तो इन झगड़ोंके शीघ्र ही समाप्त हो जानेकी सम्भावना है। मुझे कानूनमें साम्प्रदायिताको कोई जगह नहीं देनी चाहिए। मैं सभी दलोंको समान अवसर दूंगा और संख्या अथवा अन्य किसी दृष्टिसे कमजोर दलोंको शिक्षाके मामले में प्राथमिकता दूंगा। अतएव शिक्षाके मामलेमें ऐसी प्राथमिकता देनेके लिए कानूनी तौरपर व्यवस्था करूँग। यदि आप इस दृष्टिसे समस्यापर विचार करेंगे तो आपको साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्वके सम्बन्धमें सभी दलोंके मतैक्यकी आवश्यकता नहीं रह जायेगी, वरन् आप शुद्ध न्यायके आधारपर ही इसका समाधान कर लेंगे। वर्तमान विक्षुब्ध स्थितिमें संविधान तैयार करनेका यही एक तरीका मुझे दिखाई देता है।

अब आपके अन्तिम प्रश्नपर आयें। मैं सचमुच यही मानता हूँ कि साम्प्रदायिक वैमनस्यके लिए अंशतः सरकार जिम्मेदार है। मैं जानता हूँ कि दोष मूलतः हमारा है। यदि हम स्वयं झगड़ोंपर आमादा न हों तो कोई भी बाहरी ताकत हमें नहीं लड़ा सकती। लेकिन जब एक विदेशी सत्ता— जिसका बल हमारी दुर्बलतामें ही है— हमारे मतभेद देखती है तो वह जाने या अनजाने उनका लाभ उठाती है। प्रत्येक भारतवासी यह जानता है और इसके परिणामोंको महसूस भी करता है। कुछ ईमानदार ब्रिटिश अधिकारियोंने तो मेरे सामने यह बात निस्संकोच स्वीकारतक की है, और कुछ अन्य अधिकारियोंने अपने असावधानीके क्षणोंमें कुछ ऐसी स्वीकारोक्तियाँ की या कुछ ऐसी बातें कह दी हैं जिनसे इस नीतिका राज खुल जाता है। पर मैं इस बातपर बहुत जोर नहीं दूंगा। मैं भलीभाँति जानता हूँ कि यदि आप इसे मान लें तो भी इस बुराईको दूर करनेके लिए कुछ कर नहीं सकते। इसका उपचार पूरी तरह हमारे ही हाथोंमें है। आप इतना ही कर सकते हैं कि यदि आपके पास अधिकार हों तो हमें एक अच्छा और व्यवहार्य संविधान दें। लेकिन आपके जो प्रतिनिधि यहाँ हैं उन्हें आप निस्सन्देह अपने नियन्त्रणमें नहीं रख सकेंगे। वे प्रतिनिधि स्वयं भी जानते हैं कि नाम उनका गुमाश्ता है मगर असलमें तो मालिक वे ही हैं। इससे पहले मैं सरकारकी प्रशासनिक सेवाओं (सिविल सर्विसेज) को संसारकी विशालतम और सबसे सशक्त गुप्त संस्था कह चुका हूँ। "मैसोनिक ब्रदरहुड" की भाँति इसके भी अपने संकेत-चिह्न और लिपिहीन भाषा है जिसके माध्यमसे इसके सदस्य परस्पर सम्पर्क रखते हैं। और इसपर किसीको आश्चर्य भी नहीं होना चाहिये। एक लाख व्यक्तियोंके लिये ३० करोड़ लोगोंके बीच रहना, उनपर शासन जमाना तथा उनकी इच्छाके विरुद्ध उनसे अपना स्वार्थ साधना, बिना अनुचित साधनोंका सहारा लिये सम्भव ही नहीं।