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१९७. पत्र : नॉर्मन लीजको

आश्रम
साबरमती
२३ जुलाई, १९२६

प्रिय मित्र,

पत्रके[१] लिए कृतज्ञ हूँ। मैं चाहता हूँ कि आगेसे आप अपनी कही किसी भी बातके लिये क्षमा न माँगें। मैं आपको आश्वस्त करता हूँ कि आपको गलत नहीं समझूँगा।

आपने मेरे पास प्रमाण स्वरूप जो लेख भेजा है, वह लन्दनके एक मित्रने पुस्तकके रूपमें मुझे भेज दिया था। यह एक अच्छा और तर्कपूर्ण, सुसंगत लेख है। कुछ दिन पहले मैं 'यंग इंडिया' के पृष्ठोंमें विस्तारसे इसकी चर्चा कर चुका हूँ। अब आपका प्रश्न लें। मेरी समझमें इस समय भारतकी स्थिति निराशाजनक देखने में ही लगती है। और इसके निराशाजनक होनेका कारण यह नहीं है कि विभिन्न दलोंके पास कोई सुसम्बद्ध कार्यक्रम नहीं है। कारण यह है कि किसी भी दलके पीछे शस्त्रोंकी या अन्य किसी प्रकारकी ऐसी ताकत नहीं है जिसके बलपर वह सरकार द्वारा ठुकरा दिये जानेपर अपनी नीतिको दृढ़तासे लागू करा सके। सरकार तो हर बार हर दलके कार्यक्रमको ठुकराती ही रही है। मैं आपको याद दिला दूं कि यहाँ-के दलोंमें माँगोंको लेकर जो मतभेद है वह सिद्धान्तका नहीं बल्कि इसको लेकर है। कि किस माँगको कितनी प्रमुखता दी जाये और किससे कितनी शीघ्र सफलता मिलेगी। नरमदल अपनी माँगें कम रखता है, तो वह ऐसा इसलिए नहीं करता कि वह अधिकको पचा नहीं सकता, बल्कि इसलिए कि उससे अधिक मिल नहीं सकता। परन्तु यदि सरकार, मान लीजिए स्वराज्य दलकी ही सभी माँगोंको मंजूर कर लेती है तो अन्य दल भी उसके साथ हो जायेंगे। हाँ, यह जरूर है कि यह बात मैं साम्प्रदायिक झगड़ोंको, जिनके बारेमें में आगे लिखूंगा, अलग रखकर कह रहा हूँ। अतएव यदि इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी भारतके सबसे अधिक प्रगतिशील दलके साथ सलाह-मशविरा करके एक ऐसा संविधान बनाती है, जिसे ब्रिटिश संसद स्वीकार कर ले तो आप देखेंगे कि सभी दल उसका स्वागत करेंगे। इसलिए यदि मैं आपकी जगह होता और मुझसे इंडिपेंडेंट लेबर पार्टीका मार्गदर्शन या नेतृत्व करनेको कहा जाता

तो मैं भारत जाता, वहाँके प्रगतिशील दलका पता लगाकर उसके नेताओंसे परामर्श करता, एक कार्यक्रम बनाता और उसपर अनुकूल या प्रतिकूल सभी परिस्थितियों में डटा रहता।

  1. २९ जून १९२६ के इस पत्रके लिए देखिए परिशिष्ट १ ।