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१९२. पत्र : प्रभुदास भीखाभाईको

साबरमती
२१ जुलाई, १९२६

प्रिय प्रभुदास भीखाभाई,

आपका पत्र मिला। मैं मानता हूँ कि प्राणनिग्रहसे वीर्यनिग्रह हो सकता है; परन्तु उससे ब्रह्मचर्य पालनका कठिन प्रश्न हल नहीं हो सकता। ब्रह्मचर्यका अर्थ है सभी इन्द्रियोंका संयम। आपको कदाचित् यह ज्ञात नहीं कि आजकल शल्यक्रिया की सहायतासे वीर्यनिग्रह किया जा सकता है, परन्तु क्या ऐसे मनुष्यको आप ब्रह्मचारी मानेंगे? एक शास्त्रीने मुझे यह बताया कि संस्कृतमें वीर्यनिग्रह करनेका अर्थ है उर्ध्वरेता होना। उन्होंने यह भी कहा कि 'भागवत' के भगवान् कृष्ण उर्ध्वरेता थे और इसलिए कितनी ही स्त्रियोंसे स्वच्छन्द व्यवहार कर सकते थे। इससे क्या आप उन्हें ब्रह्मचारी माननेके लिए तैयार हैं? अब आप समझ जायेंगे कि केवल प्राणायामसे साधे गये ब्रह्मचर्यका मूल्य बहुत नहीं है। उसका मूल्य तो, इन्द्रियोंका दमन करने में जो महाप्रयास करना पड़ता है, उसमें निहित मानना चाहिए। और ऐसा प्रयास करते-करते इन्द्रियोंकी गति आत्मोन्मुख होनेसे उनमें जो शक्ति सृजित होती है वह समस्त ब्रह्माण्डमें व्याप्त हो सकती है। मेरा यह अडिग विश्वास है कि ऐसा ब्रह्मचर्य कभी बाह्य साधनोंके द्वारा नहीं साधा जा सकता। 'गीता' के दूसरे अध्यायमें अनुभवी कृष्णने कहा है कि निराहारी मनुष्यके विषय भले ही शान्त हो जायें; परन्तु विषयोंका रस नहीं जाता।[१] यह वासना तो ईश्वरके साक्षात्कारसे ही जाती है और ईश्वरका साक्षात्कार करनेमें तो कई जन्म लग जाते हैं। शंकराचार्यका कहना है कि यदि कोई मनुष्य समुद्रके किनारे बैठकर तिनकेसे एक-एक बूंद उलीचनेका धैर्यपूर्वक महाप्रयास करे और उस पानीको समा लेने योग्य कोई स्थान हो तो अंकगणितके हिसाबसे कई करोड़ वर्षोंमें समुद्रको खाली किया जा सकता सम्भव भले ही हो, परन्तु इसके लिए जितना धैर्य चाहिए उससे कहीं अधिक धैर्य ईश्वरका साक्षात्कार करनेके लिए चाहिए। 'भगवद्गीता' के वचनके अनुसार ब्रह्मचर्यका अर्थ है ईश्वरका साक्षात्कार। इसमें प्राणायामकी अवगणना कदापि नहीं है। मैं प्राणायामको सहायक वस्तु मानता हूँ; परन्तु यह उसका सम्पूर्ण साधन नहीं। यह ब्रह्मचर्य पालनके मार्गका केवल एक छोटा-सा भाग हो सकता है। मेरी आपसे यही शिकायत है कि आप इसे जितना महत्व देना उचित है, उससे अधिक महत्व देते जान पड़ते हैं।

मोहनदासके वन्देमातरम्

कठलाल

गुजराती पत्र (एस० एन० १९९३५) की माइक्रोफिल्मसे।

  1. विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्थ देहिनः । २-५९