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१८७. पत्र : आर० बी० ग्रेगको

आश्रम
साबरमती
२१ जुलाई, १९२६

प्रिय गोविन्द,

तुम्हारा पत्र मिला। यदि मैं चमत्कारमें विश्वास करता होता, तो मैं यही कहता कि मेरा फिनलैंड न जाना एक चमत्कार है। वास्तवमें, मैं तो अन्तिम स्वीकृतिका पत्र और तार भी लिखा चुका था, परन्तु 'पुस्तकालय' जानेका मेरा संयोग और सहसा मनमें एक विचार कौंध उठनेसे पाँच मिनटके अन्दर पूरी स्थिति बदल गई।

यदि मुझे राह साफ दिखाई दे तो मैं निश्चय ही चीन जाना चाहूँगा, लेकिन तुमने जिनका जिक्र किया है उन कारणोंसे नहीं। विदेशोंमें धाक या प्रतिष्ठा जमनेकी बातपर मेरा विश्वास नहीं है। इस कारण मुझे नहीं लगता कि चीनियोंद्वारा इसे स्वीकार कर लेने से, वैसे मुझे इसकी आशा भी नहीं है, भारतमें मेरा रास्ता कुछ अधिक सुगम हो जायेगा। जो चीज मुझे चीनके प्रति आकर्षित करती है वह है हम दोनोंकी स्थितिकी समानता। दोनों ही देश विदेशी सत्ताके अधीन हैं। ट्रान्सवालमें चीनी बस्तीके साथ मेरा बहुत ही निकटका सम्पर्क रहा था। सच तो यह है कि मैं जहाँ फिनलैंडमें बुद्धिजीवियोंको आसानीसे अहिंसाका कायल बना सकता था वहाँ चीनियोंसे, चाहे वे संस्कृत हो या असंस्कृत, ऐसी स्वीकृति पाना मेरे लिये अत्यन्त ही कठिन होगा। लेकिन जिस प्रकार मुझे यहाँ इसकी कोई परवाह नहीं कि लोग अहिंसाको अपनाते हैं या नहीं, उसी प्रकार इस बातकी भी कोई चिन्ता नहीं है। यूरोप और अमेरिकाकी ओरसे जो भय मुझे है वह है उनका संरक्षकके भावसे मिलना। चीनसे मुझे ऐसी कोई आशंका नहीं है। मेरी इस बातमें तुमको शायद गर्वका किंचित् आभास दिखाई पड़े। ऐसा लगे तो वह ज्यादा गलत नहीं होगा। स्थिति यही है।

किसी मित्रने "द आर्म ऑफ गॉड" पुस्तक मुझे भेजी जरूर थी। मैं नहीं समझता कि मैंने उसे ध्यानसे पढ़ा था। पर तुम उसे इतनी अच्छी बताते हो इसलिये मैं अपने पुस्तकालयाध्यक्षसे उसे निकालकर भिजवानेको कहूँगा।

अहिंसाके[१] विषयपर लिखनेके पहले तुम शौकसे खद्दरके सम्बन्धमें अपने अर्थशास्त्रीय तर्कोको सुव्यवस्थित कर लो। जब तुम मुझे प्रश्न भेजोगे, मैं उनका उत्तर देनेका प्रयत्न करूँगा।

इस समय मुझे साबरमती के बाहर नहीं जाना चाहिये। मेरी तबीयत ठीक चल रही है। मैं केवल फलोंपर रहनेका प्रयोग कर रहा हूँ। आज नवाँ दिन है।

  1. श्री ग्रेगने इसके बाद इकॉनॉमिक्स ऑफ खद्दर तथा पॉवर ऑफ नॉनवॉयलेन्स लिखी थी।