१८४. पत्र : ए० एम० सिम्सनको
आश्रम
साबरमती
जुलाई, १९२६
नियमावलिके साथ आपका पत्र मिला। मुझे तो सिन्डीकेटका एकमात्र उद्देश्य तिलहन खरीदना ही लगता है। इस बातका कहीं भी उल्लेख नहीं है कि इस उद्योग-को प्रारम्भ करनेवाले लोग कौन हैं और शुरू-शुरूमें इसके लिए किसने पूंजी लगाई है। जबतक मुझे और अधिक ठीक-ठीक जानकारी नहीं मिलती, तबतक मैं अपनी राय नहीं दे सकूँगा ।
हृदयसे आपका,
सचिव
कोऑपरेटिव वेजीटेबल आयल सिन्डीकेट लिमिटेड
अंग्रेजी प्रति (एस० एन० १९६७१) की माइक्रोफिल्मसे।
१८५. पत्र : परमानन्द कुँवरजीको
आश्रम
साबरमती
मंगलवार, आषाढ़ सुदी १०, २० जुलाई, १९२६
आपका पत्र मिला। शब्दोंके विषयमें आपके तर्कको मैं समझता हूँ और उसका महत्व भी जानता हूँ। जब एक शब्द अनेक अर्थोंमें प्रयुक्त होता है तब उससे बहुत गलतफहमी पैदा होती है। परन्तु मेरा विश्वास है कि इससे मेरे लेखोंका भावार्थ समझने में कोई मुश्किल नहीं होती।
मैं माधुरीके मामलेमें आपका दोष मानता हूँ। हम बालकोंको किसी वातावरणमें रखें और फिर यह मानें या चाहें कि उस वातावरणका स्पर्श उन्हें न हो, यह कितने आश्चर्य की बात है। मैं ऐसे दृष्टान्त जगह-जगह देखता रहता हूँ। यदि आप माधुरी-को शौकीन नहीं बनाना चाहते तो आपको उसे सादे वातावरणमें रखना चाहिए।