रंगभेद सभी जगह मौजूद है। यह एक ऐसा व्यवधान है जिसे समय ही समाप्त करेगा। इसको खत्म करनेके लिए कोई कानून जरूरी नहीं है। यों देखा जाये तो यह भेदभाव दक्षिण आफ्रिकाकी अपेक्षा शायद यहाँ कहीं अधिक है। लेकिन मैं इस तर्कको और आगे नहीं बढ़ाना चाहता। मैं सिर्फ इतना कहना चाहता हूँ कि तुम अपनी लेखनीपर थोड़ा अंकुश रखो, क्योंकि जो-कुछ तुम लिखते हो उसका प्रभाव अवश्य पड़ेगा और पड़ता है। तुम्हारा यह लेख इतना असंगत है कि मैं इसे लौटा रहा हूँ ताकि तुम इसपर फिर विचार कर सको। यदि मैं गलतीपर हूँ, तो बताना। 'अफीम' के विषयपर जो लेख तुमने भेजा था वह भी मैंने प्रकाशित नहीं किया। वह इतनी जल्दीमें लिखा गया है कि वह कामका नहीं बन पाया है। वह बड़ा ही असम्बद्ध-सा है और उसमें जानकारी भी पर्याप्त नहीं दी गई। परन्तु ये दोनों लेख तुम्हारी अत्यधिक मानसिक क्लान्तिके द्योतक हैं। क्या तुम अपनेको थोड़ा रोकोगे नहीं, या तुम सोचते हो कि प्रभुका आदेश यही कि तुम्हारी लेखनी अविराम चलती रहे? ग्रेगने लिखनेकी तुम्हारी इस झकको एक पंक्तिमें व्यक्त कर दिया है। उनका कहना है कीड़ेके काटनेसे हुआ जहरबाद तुम्हारे लिए भगवानका दिया वरदान था, क्योंकि उससे मजबूरन तुम्हें कलम उठाकर रख देनी पड़ी थी। कुछ भी कहो, जबतक तुम्हें कुछ आराम नहीं मिल जाता, तबतक 'यंग इंडिया' के लिये कुछ लिखनेके दायित्वसे मैं तुम्हें बरी करता हूँ। और यदि तुम अन्य समाचारपत्रोंसे भी इस प्रकारकी मुक्ति चाहते हो, तो उसे दिलानेका जिम्मा मैं अपने ऊपर लेता हूँ। मैं तुम्हें इस बातका विश्वास दिलाना चाहता हूँ कि तुम्हारे लेख लिखना बन्द करनेसे आसमान नहीं गिर पड़ेगा। शायद ही कोई ऐसा समाचारपत्र में देखता हूँ जिसमें एक ही विषयपर तुम्हारे लम्बे-लम्बे लेख न होते हों। यदि ये समाचारपत्र तुम्हारे लेखोंके बिना नहीं चल सकते तो उनको बन्द हो जाने दो। मुझे इस बातसे दुख होता है कि आवश्यक न होनेपर भी तुम निरन्तर लिखनेमें जुटे रहते हो।
हार्दिक प्रेम।
तुम्हारा,
शान्तिनिकेतन
अंग्रेजी प्रति (एस० एन० १९६७०) की फोटो-नकलसे।