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१७८. पत्र : सी० वी० रंगनचेट्टीको

आश्रम
साबरमती
२० जुलाई, १९२६

प्रिय मित्र,

चरखा और आपका बिल मुझे मिल गये हैं। अपने उस पहले पत्रकी शर्तोंके मुताबिक जो मैंने चरखा मँगानेके लिए लिखा था, मुझे यह [ चरखा ] वापस करना पड़ेगा। परन्तु आपके साथ कोई अन्याय न हो, इसलिए ऐसा करनेसे पहले मैं इसके विषयमें अपने विचार आपको बता देना चाहता हूँ।

यह चरखा बहुत ही हलका-फुलका है। इसका लकड़ीका भाग तो ठीक है पर तारकी तीलियाँ और आड़ एकदम बेकार हैं, क्योंकि वे इस्पातकी नहीं हैं। जरा-सा दबाव पड़ते ही ये तार मुड़ जाते हैं, जबकि खादी-प्रतिष्ठानके चरखेमें ये सब तार इस्पातके हैं। धुरी पाओंपर सीधी नहीं बैठती, नतीजा यह है कि चरखेकी माल बीचमें न रहकर चरखेके एक ओर हो जाती है। तकुआ बिलकुल निकम्मा है क्योंकि एक ओर झुका रहनेके बजाय वह सिरोंपर नुकीला सीधा तार-मात्र है। आप उसपर आसानीसे कात नहीं सकते। गरारी भी बिलकुल निकम्मी है, उसमें हत्था तो है ही नहीं। अतएव जो चरखा आपने मुझे भेजा है वह जैसा आपका दावा है, खादी-प्रतिष्ठानके चरखेसे अच्छा तो है ही नहीं, वह उससे कहीं घटिया है। आपने जो मूल्य बताया था, वह बहुत कम था। इसी कारण मैंने आपके चरखेको परीक्षणके लिए मँगवाया था। खादी प्रतिष्ठानके चरखेका मूल्य मेरी सलाहसे, काफी सोच-विचारके बाद और ठीक-ठीक लागतका हिसाब लगाकर ही निर्धारित किया गया था। आपको इसका कोई अन्दाज नहीं है कि किसी वस्तुको बनाते समय छोटी-छोटी चीजोंको एकदम ठीक बनानेमें, जैसी वे खादी-प्रतिष्ठानके चरखेमें हैं, कितनी लागत आती है। चरखा भेजने से पहले उसके हर पुर्जेकी जाँच की जाती है। मैं यह बात साफ समझ गया हूँ कि आप स्वयं चरखा नहीं चलाते । और जबतक कोई स्वयं चरखा चलाना नहीं जानता, वह बनावटकी ऊपरी समानतासे आसानीसे धोखा खा सकता है।

अब आप मुझे बताइये कि आपके चरखेका मैं क्या करूँ? मैं आपको एक पैसेका भी नुकसान नहीं पहुँचाना चाहता। इसलिए मैं खुशीके साथ वह चरखा आपको वापस भेज दूंगा। लेकिन यदि आप चाहते हैं कि मैं इस चरखेको कहीं और भेज दूं, तो वह भी मैं सहर्ष अपने खर्चपर कर दूंगा। अथवा यदि आपकी इच्छा हो कि किसी और तरहसे में इसे आजमाकर देखूं तो वह भी मैं खुशीसे करूँगा। और यदि