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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

कभी रोये हो? प्रार्थना-प्रार्थनामें भी अन्तर होता है। एक प्रार्थना ऐसी होती है, जो प्रभुको माननी ही पड़ती है।

बापूके आशीर्वाद

खेड़ा, कच्छ

गुजराती पत्र (एस० एन० १९९३२) की माइक्रोफिल्मसे।

१७६. पत्र : नानाभाई भट्टको

आश्रम
सोमवार, १९ जुलाई, १९२६

भाई नानाभाई,

आपका पत्र तो मेरे लिए एक अभ्यास ही है। भाई नरहरिने अपने पत्रके उत्तरमें लिखित महादेवके पत्रका एक अंश आपको भेजा है। उन्होंने लिखा था कि हमारी गर्ज न बालकोंको है और न उनके माता-पिताओंको। वे सभी सरकारी स्कूलोंमें चले जायेंगे। उनमेंसे कोई भी खादी पहननेवाला या आपके सन्देशको सुनने-वाला नहीं है। इस तरहकी बातका मेरा उत्तर यही हो सकता है कि जो बालक हमारे नियमोंका पालन नहीं करते वे हमारी शालासे चले जायें। नियमोंमें खादी, अस्पृश्यता-निवारण आदि शामिल हैं। मैंने इसी स्थितिमें महादेवसे यह लिखवाया था कि नरहरि सूरतमें अपनी इच्छासे रह रहे हैं। मैंने तो उनकी सेवाएँ तीन-चार महीने के लिए ही माँगी थीं। मैं नरहरिके चंचल स्वभावसे परिचित हूँ। 'स्वधर्म अल्प हो तो भी उसका पालन श्रेयस्कर है', इस महावाक्यके आधारपर ही मैंने कहा था कि उनके लिए सरभोण ही ठीक स्थान है। लेकिन वे अपनी इच्छासे सूरत रहना चाहें तो रहें। इतना कहकर मैं तो अपने दायित्वसे मुक्त हो गया। मैं कोई आदेश नहीं देता। मैं तो सलाह देता हूँ। आदेश देनेका काम तो मैंने आपको सौंपा है। यदि मैं स्वयं शिक्षक होऊँ तो क्या करूँ, मैंने तो यही बताया था। दूसरे लोग उसमेंसे जितना कर सकें उतना करें; और यदि कुछ न कर सकें तो कुछ न करें। मैं तो कन्यादान कर चुका, अब उनकी गृहस्थी चलाना मेरा काम नहीं है। फिर भी मैं कन्याके पिताके नाते सीख जरूर दे सकता हूँ। लेकिन मैं आपके और अपने बीचके मतभेदको समझ गया हूँ। आप कहते हैं कि राष्ट्रीय शिक्षा और खादी इत्यादि। जबकि मैं कहता हूँ कि राष्ट्रीय शिक्षा अर्थात् खादी इत्यादि । आपने यह मतभेद पहली बार स्पष्ट किया है। आप जब यहाँ आयें तब मुझे स्वयं बतायें या पत्रसे बताना चाहें तो पत्र द्वारा बतायें कि इन तीनोंके बिना राष्ट्रीय शिक्षाका अर्थ क्या है?

मैं न तो ईसाई धर्म-प्रचारकोंका तरीका अपनाना चाहता हूँ और न वह तरीका जो मुसलमानोंका तरीका कहा जाता है। मुझे मेरा धर्म तीसरा ही मार्ग दिखाता है। मैं तो जो कुछ देना है, वह बता देता हूँ और उसका मूल्य भी बता देता हूँ। तब