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एक अटपटा सवाल

देवी-देवतागण अनेक शक्तियोंके सूचक हैं। उनका यह वर्णन काव्य है। धर्ममें काव्य-को स्थान है। हम जिन बातोंको अपने ढंगसे मानते हैं उन बातोंको हिन्दू धर्मने शास्त्रका रूप दे दिया है। एक तरहसे वे सब लोग जो यह मानते हैं कि ईश्वरकी अनन्त शक्तियाँ हैं, देवी-देवताओंको मानते ही हैं। जिस प्रकार ईश्वरकी अनेक शक्तियाँ हैं उसी प्रकार उसके अनन्त रूप भी हैं। जिसे जैसा रुचता है वह उसे उस गुण और रूपसे युक्त मानकर पूज सकता है। मुझे तो इसमें कोई दोष नहीं जान पड़ता। जहाँ-जहाँ आवश्यक हो वहाँ-वहाँ विद्यार्थियोंको रूपक और प्रतीकोंको स्पष्ट करके उनका रहस्य समझाने में तो मुझे संकोचका कोई कारण नहीं दिखाई देता। मैंने इसका कोई अनिष्ट परिणाम होते हुए भी नहीं देखा। मैं बालकोंको भ्रमित तो अवश्य ही नहीं करूंगा। मुझे यह माननेमें कोई कठिनाई महसूस नहीं होती कि हिमालय पर्वत भगवान् शिव हैं और गंगा पार्वती हैं और उनकी जटाओंसे प्रवाहित हैं। इतना ही नहीं इनसे ईश्वरके विषयमें मेरी भावनाको बल मिलता है और मैं यह भली-भाँति समझ पाता हूँ कि सब-कुछ ईश्वरमय है। समुद्र मंथन इत्यादिके विषयमें भी जिसे जैसा योग्य लगे ऐसा नीतिमें वृद्धि करनेवाला अर्थ बैठा सकता है। पण्डितोंने अपनी-अपनी मतिके अनुसार इन सब रूपकोंके अर्थ लगाये हैं। उनके इतने ही अर्थ निकल सकते हैं, ऐसी कोई बात नहीं है। शब्दों, वाक्यों इत्यादिके अर्थमें उसी प्रकार विकास होता रहता है जिस तरह मनुष्यमें। जैसे-जैसे हमारी बुद्धि और हृदय विकसित होते हैं, वैसे-वैसे शब्द और वाक्य इत्यादिके अर्थ भी विकसित होने चाहिए और होते ही रहते हैं। जहाँ लोग अर्थोंको मर्यादित कर डालते हैं, उनके आसपास दीवारें खींच देते हैं वहाँ समाजका पतन हुए बिना नहीं रहता। अर्थकार और अर्थ इन दोनोंका साथ-साथ विकास होता है। सभी अपनी-अपनी भावनाके अनुसार अर्थ निकालते ही रहेंगे। व्यभिचारीको 'भागवत' में व्यभिचार दिखाई पड़ेगा। एकनाथने उसीमें से आत्मदर्शन प्राप्त किया। मेरा दृढ़ विश्वास है कि भागवतकारने 'भागवत' का लेखन व्यभिचार-वृद्धिके ध्यानसे नहीं किया। किन्तु आजका आदमी यदि इन पुस्तकोंमें ग्रहण करने योग्य कोई बात न देख पाये तो वह उन्हें अवश्य छोड़ दे। इसके सिवा जो कुछ छपा हुआ है, और विशेषतः संस्कृतमें, उस सबको यदि हम धर्म ही मान बैठें, तो यह धर्मान्धता अथवा जड़ता ही होगी।

इसलिए इस प्रश्नको हल करते हुए मैं तो एक ही स्वर्ण-नियम लागू करता हूँ और वही शिक्षकोंके सामने रख देना चाहता हूँ; हम जो कुछ पढ़ते हैं, फिर चाहे वह 'वेद' में हो, चाहे 'पुराण' में अथवा किसी अन्य पुस्तकमें, किन्तु यदि उससे सत्यको आघात पहुँचता हो अथवा हम जिसे सत्य मानते हैं उसपर आघात करता हो, अथवा दुर्गुणोंका पोषक जान पड़ता हो तो उसका त्याग कर देना हमारा धर्म है। मुझपर जेलमें जो-कुछ बीता वह मैं यहाँ लिखना चाहता हूँ। मैंने कई लोगोंसे कई बार जयदेवकृत 'गीत-गोविन्द' की तारीफ सुनी थी और मेरी इच्छा थी कि मैं उसे कभी-न-कभी पढ़ेगा। इस काव्यसे सम्भव है, किसीका उपकार हुआ हो किन्तु मेरे लिए तो इसका पठन शिक्षादायी सिद्ध नहीं हुआ। पढ़ तो मैं गया किन्तु उसके वर्णन पढ़कर मुझे दुःख