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१६९. पत्र : गुलबाई और शीरींबाईको

आश्रम
साबरमती
शनिवार, आषाढ़ सुदी ७, १७ जुलाई, १९२६

प्यारी बहनो,

आपका पत्र मिला। आश्रममें रहने के लिए मुख्य रूपसे इन बातोंकी तैयारी करनी होती है। खाने और पहननेमें सादगीका अभ्यास करना, शरीर श्रमके लिए मनको तैयार करना, पींजना सीखना, नित्य चरखा चलाना, सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य और अन्य यम-नियम पालनेका पूरा प्रयत्न करना, टट्टी साफ करनेमें घिन न मानना, वरन् टट्टी साफ करनेको अपना कर्त्तव्य मानना।

गुलबाई तथा शीरींबाई बहरामजी कराडिया
नवसारी

गुजराती प्रति (एस० एन० १२२०५) की माइक्रोफिल्मसे।

१७०. एक अटपटा सवाल

एक शिक्षक पूछते हैं:[१]

मैं भी एक तरह से शिक्षक हूँ और शिक्षाके क्षेत्रमें मैंने अनेक प्रयोग किये हैं और कर भी रहा हूँ; इसलिए इस प्रश्नका उत्तर देनेका साहस करता हूँ। यह प्रश्न एक सहयोगीने किया है। बहुत दिनोंसे मैंने इस और इस जैसे अन्य प्रश्नोंको सँभालकर रख छोड़ा था। उक्त सहयोगीने ऐसी कोई माँग नहीं की है कि इन प्रश्नों-के उत्तर 'नवजीवन' की मारफत ही दिये जायें, किन्तु में बहुत-से शिक्षकोंके सम्पर्कमें आता हूँ और उनमें से अनेकोंके लिए मेरे विचार सहायक हो सकते हैं इस आशासे मैंने इनका उत्तर नवजीवन' के माध्यमसे देना निश्चित किया है।

मैं स्वयं पुराणोंको धर्मग्रन्थोंके रूपमें मानता हूँ। देवी-देवताओंको भी मानता हूँ। किन्तु यह मैं जानता हूँ कि पुराणपन्थी उन्हें जिस रूपमें मानते हैं अथवा जिस तरह हमसे मनवाना चाहते हैं, मैं उन्हें उस तरह नहीं मानता। आजकलका समाज उन्हें जिस तरह मानता है, उस तरह भी मैं नहीं मानता। इन्द्र, वरुण इत्यादि देव आकाशमें रहते हैं और वे अलग-अलग व्यक्ति हैं अथवा सरस्वती आदि देवियाँ कोई वास्तविक व्यक्ति हैं, ऐसा भी मैं नहीं मानता। किन्तु मैं ऐसा अवश्य मानता हूँ कि

  1. प्रश्न यहाँ नहीं दिये जा रहे हैं। वे पुराणोंमें आये हुए देवी-देवताओंके प्रतीकोंसे सम्बन्धित प्रश्न थे। पूछा गया था कि पुराण-कथाओंके सम्बन्ध में बच्चों को उन्हें समझाते हुए शिक्षक क्या रुख अपनायें।